नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Monday, October 26, 2009

गाँधी और मै--अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी



किसी सोच का दायरा इतना बड़ा हो सकता है ; यह गांधी जी पर सोचते हुए महसूस होता है क्योंकि गाँधी जी पर सोचना खुद पर सोचना है परिवेश पर सोचना है, इतिहास पर सोचना है, भविष्य पर सोचना है, संस्कृति पर सोचना है.....और इस सबके निराशा, उलझाव, विसंगति, प्रभृति स्थितियों को अपनी संजीवनी शक्ति से निष्क्रिय करती एक अभय वास्तविकता हमारी प्रेरणा बनाती है--"गाँधी जी मर सकते हैं लेकिन विचार नहीं."


"इस नोट पर किनका चेहरा छपा है..!" गाँधी की तरफ ध्यानाकर्षण का यही पहला समय था. बचपन की किसी लोरी में गाँधी जी कभी नहीं आये. हाँ, 'भकाऊं' के नाम के डर से बच्चे सुलाए जाते थे. अच्छा ही है सुलाने के लिए गाँधी जी नहीं बुलाये जाते.आगे चलकर वर्ष में आने वाले तीन राष्ट्रिय पर्वों में 'महात्मा गाँधी की जय' ने बाल मन को गाँधी जी के और नज़दीक ला दिया था. मौसमों की तरह वर्ष भी बीतने लगे. आयु ११ वर्ष की थी और न भुलाया जा सकने वाला 'मंदिर-मस्जिद' विवाद का सन बानबे का समय. लोग घर-गांव, चौराहे, बाजार आदि जगहों पर 'हिन्दू-मुस्लिम' समस्या पर बतियाते थे. कभी-कभी कान में आवाज पड़ती-"मेन गलती तो गाँधी जी किहिन...". तब समझ में नहीं आता था, आखिर ऐसी क्या गलती कर डाली थी बापू ने? बंटवारा, हिन्दू, मुस्लिम, गाँधी, मंदिर, मस्जिद...विकट पहेली सुलझ नहीं पाती थी. मेरा तो बचपना था और पहेली बुझाने वाले लोग तो बड़े लोग थे.


"गाँधी जी के बारे में मेरे बचपन के साथी को एक बात पता चली. बात थी--'कोई एक गाल पर तमाचा दे तो उसके सामने दूसरा गाल भी कर दो.' अलाव के चारों ओर बैठे लोगों में से सरपंच के सामने साथी ने यह बात कही. लुल्लुर सरपंच जो कि तेल-पिलाई लाठी लेकर चलते थे, चालू हो गए--"सब फालतू की बात है. इतना तेज रसीदों कि फिर हिम्मत ना कर सके मारने की. ज्यादा गाँधी की मत सुनों बेटा. डरपोक बनाते हैं, गाँधी..!" लुल्लुर सरपंच मोंछ ऐंठ कर चालू थे--''जो ताको कांटा बोए, ताहि बोउ तू भाला / वो भी साला क्या जाने पड़ा किसी के पाला.//"




मेरी हिम्मत ना थी, सरपंच साहब से कुछ पूँछता. हाँ; सरपंच साहब अभी कुछ महीने पहले दिवंगत हुए हैं और 'शक्तिमेव जयते' में विश्वास रखने वाले लुल्लुर इतने शक्तिहीन हो गए थे कि अपनी आँखों के सामने ही अपने लड़कों को मार-काट करते देखकर रोक ना सके. फौजदारी होती रही और घर की इज्जत बनिए की आढ़त पर जाकर बिकती रही. पोते-पोती सही से पढ़ ना सके. काश सरपंच साहब अपने बच्चों को (जिन्हें वे गुरुर से थानेदार और जिलेदार नाम से बुलाते थे) धैर्य,त्याग, समता, प्रेम, सत्य जैसे मूल्यों को सिखाते..सत्यमेव जयते बताते.


यह घटना व्यापक तौर पर देश के लिए भी सत्य साबित हो रही है, जहाँ थानेदार और जिलेदार, मजहब, क्षेत्र, जाति, आदि के रूप में देख सकते हैं.


अंतिम बात..एक मुहाविरे कि. बहुत लोग कहते हैं--"मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी". क्या मजबूरी थी...शायद लोग सोचते नहीं. यह गलत कहावत जाने कैसे इतनी व्यापक हो गयी और लोगों ने इसकी सच्चाई नहीं परखी. जिस सत्य का आग्रह गाँधी जी करते रहे, हमने इस आग्रह को इतना तोड़ डाला. जिस सत्य को अंग्रेजों ने देखा, उसको भी ना देख सके हम. लार्ड माउन्टबेटन ने गाँधी के तप और सत्य को देखा था. और नोआखाली, बंगाल में गाँधी जी के खिलाफ लड़ने की शक्ति (जो कि कदापि मजबूरी नहीं थी) को सलाम करते हुए माउन्टबेटन ने कहा था---"पंजाब में पचास हजार सैनिक सांप्रदायिक हिंसा को नहीं रोक सके और बंगाल में हमारी फौज में केवल एक ही आदमी है और वहां कोई हिंसा नहीं हुई. एक सेना अधिकारी और प्रशासक के रूप में इस व्यक्ति (गाँधी) की सेवा को मै सलाम करता हूँ.."
हिंदी के अतिरिक्त किसी और भाषा में शायद बापू पर ऐसी कहावत (मजबूरी का नाम...) नहीं बनी होगी. ऐसी कहावत हिंदी में है जिसके प्रचार-प्रसार के लिए गाँधी जी ने आपादमस्तक परिश्रम किया था.



मित्रों ! सीमायें किसी की भी हो सकती हैं, परन्तु हमें सीमाओं को सीमा कहना चाहिए ना कि शक्तियों को. कमियों को कमियां कहना चाहिए ना कि अच्छाइयों को. जीवन में यह सदाग्रह बना रहना चाहिए






कि "व्यक्ति को , विकार की तरह पढ़ना , जीवन का अशुद्ध पाठ है.."(कवि कुंवर नारायण के शब्दों में).


अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी 




















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