नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Monday, November 16, 2009

गाँधी और मै: सुशील कृष्णेत


[देखिये ना गाँधी किन-किन के लिए क्या-क्या हैं .इसतरहा है महामना गाँधी की व्यापकता..सुशील जी गहरे सरोकारों के लेखक हैं. इनकी कुछ बेहतर रचनाएँ "हम तो कागज मुड़े हुए हैं" पर जाकर पढ़ी जा सकती हैं..श्रीश पाठक ]

घर में खादी के व्यवसाय के चलते, गांधीजी की फ़ोटो झाड़ते-पोछते बड़ा हुआ.तब गांधी मेरे लिये मेरे बाबा की तरह दिखने वाले एक बाबा ही थे--गंजा सिर, चश्मा, धोती, लाठी, घड़ी....और कुछ था तो ये कि अपने स्कूल मे(शिशु मन्दिर) मे हर महापुरुषों की भांति गांधी जी की जयंती मनायी जाती थी. तथाकथित मेधावी छात्र की हैसियत से मै भी उस जयंती मे गांधी पर भाषण देता. आदरणीय प्रधानाचार्य-मुख्यअतिथी महोदय से प्रारंभ होने वाला भाषण कब जय हिन्द-जय भारत के साथ खतम हो जाता पता ही नही चलता. सब कुछ रटा-रटाया; पर ये तो गांधी को जानना था ही नही..!

ऐसे ही घर पे, गाँधी जयन्ती का मतलब आज से दूकान पर छूट शुरू हो जाएगी. दूकान पर झंडी-पतंगी लगाने का काम मेरा. दूकान सज जाती थी, घर में खुशी रहती थी कि अगले तीन-चार महीनों तक दुकान 'अच्छी' चलने वाली है. फिर हाईस्कूल, इंटरमीडीएट में तो यह सब भी छूटा, बोर्ड परीक्षा का भय, फर्स्ट डीविजन की चुनौती बाकी बचा तो क्रिकेट और प्रेमिका की तलाश...!

अध्ययन, जीवन और उम्र की गंभीरता बढ़ने के साथ गाँधी को पढ़ने का मौका मिला. बचपन के उन भाषणों के रटे-रटाये शब्द 'सत्य', 'अहिंसा', 'स्वराज', 'सत्याग्रह' अब जादू लगने लगे. कई ऐसे मौकों भी आते जब बस, ट्रेन, चाय की दुकान पर यही सुनता था कि--'गन्हिया देस बेच दिहिस...' खुद मै भी कभी-कभी शामिल हो जाता था. पर अब नहीं. शायद इसलिए कि किसी बहस में 'आ बैल मुझे मार..' वाली साबित होतीं. क्लास, प्रोफेसर्स के लेक्चर्स, सेमिनार आदि से ज्यादा अच्छी तरह गाँधी का परिचय कराया मुझे कॉलिन्स और लैपियर की पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाईट' ने...!

सार रूप में कहूं तो गाँधी "दैनिक भास्कर' के उस स्लोगन के बिलकुल सटीक बैठते हैं--"जिद करो दुनिया बदलो.." इसके बाद ये कि-'जितना भारत को गाँधी --जानते थे उतना कोई अन्य नही; सिर्फ भारत को ही क्यों, ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों को, उनके भीतर छिपे अप्रगट मंतव्य को, तभी तो भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के शतरंज के खेल में गाँधी अंग्रेजों की चाल पहले भांप जाते थे..! और चेक एंड मेट का करिश्मा तभी संभव हो सका. लेकिन आजादी जितनी करीब आती जा रही थी गाँधी उतने ही हाशिये पर, यह एक दुखांत नाटक की पटकथा थी...कि नायक नेपथ्य में चला जा रहा था.
राम, कृष्ण,बुद्ध को तो मैंने नहीं देखा..खैर गाँधी को भी नही लेकिन फिर भी गांधीजी को छोड़ शेष तीनों के जीवन की कुछ कथाएं तो गढ़ी-गढ़ायीं व कोमिक्स की भांति लगती हैं. बहुत संभव है कि आने वाली गाँधी को भी एक मिथक के रूप में ही मानने लगे.
अंत में--यदि मै गढ़ूं कोई गाँधी-स्मृति भवन या कुछ ऐसा ही तो परिचयात्मक वाक्यांशों में ये शब्दावलियाँ होगी--स्वीकार का धैर्य, अस्वीकार का साहस, जिद और सदाग्रह...!
                                                          सुशील कृष्णेत  

गाँधी और मैं 
     

Friday, November 13, 2009

शिक्षा का संघवाद और चुनौतियाँ

आज सोचा कुछ कैम्पस-चर्चा हो जाए. JNU की प्रवेश परीक्षा प्रणाली बड़ी अलहदा है. लगभग हर स्कूल के हर सेंटर की थोड़ी अलग-अलग. देश भर में और कुछ देश से बाहर भी इसके सेंटर बनाये गए हैं जहाँ प्रवेश परीक्षाएं एक साथ एक ही समय में लीं जाती हैं. एक खास आकर्षक अनुशासन के साथ यह परीक्षाएं संपन्न हो जाती हैं. अगले दो से तीन महीनों में परिणाम आ जाता है. साक्षात्कार होता है और उत्तीर्ण अभ्यर्थी चयनित हो जाता है. यह विवरण देना मेरा मंतव्य नहीं. मै तो इसके आगे की कहना चाहता हूँ.

विद्यार्थी आता है. एक नया और जोशीला माहौल मिलता है. धीरे-धीरे वो यहाँ रमने लग जाता है. छोटी-मोटी परेशानियाँ आती हैं, विद्यार्थी जूझता है, इस दरम्यां कुछ बेहतरीन चीजें वो सीख लेता है. एक बात तो तय ढंग से कही जा सकती है कि कुछ समय बाद वह वैसा नहीं रह जाता, जैसा कि वह प्रवेश के समय में होता है. मानसिक आयामों  में वृद्धि तो होती ही है वरन अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि भोजन व दिनचर्या की संगतता के कारण शारीरिक विन्यास भी खिल उठता है. अचानक से ही उसकी रोजाना की चर्चाएँ क्षेत्रीय से राष्ट्रीय होते-होते अंतर्राष्ट्रीय होने लग जाती हैं. कई बेहतरीन सामग्रियां , जर्नल्स, मैगजीन, विश्वस्तरीय फिल्में और सेमिनारों से उसकी अंतर्क्रिया होती है. और सबसे बढ़कर यहाँ का अनौपचारिक माहौल.

पर कुछ बातें खटकती भी हैं. जैसे यहाँ की दाखिला-प्रक्रिया. चयन के बाद प्रवेश की इतनी लम्बी प्रक्रिया* कि दो-तीन दिन से हफ्ते तक तो लग ही जाते हैं. बहुत सारा कागज..और ढेरों लिखने की प्रक्रिया. और सेमेस्टर सिस्टम होने की वज़ह से यह प्रक्रिया हर छह महीने पर दुहराई जाती है. मुझे नहीं लगता इतने जागरूक कैम्पस में यह भारी -भरकम प्रक्रिया जिसमे अत्यधिक समय, अत्यधिक कागज और अत्यधिक विभागीय दौड़ा-भागी होती है; कहीं से भी सुसंगत है. राहत की दो बातें हैं--यहाँ का कर्मचारी स्टाफ बहुत ही सहयोगी और मृदुभाषी है और सीनियर  विद्यार्थी स्वप्रेरणा से सहयोग के लिए प्रस्तुत रहते हैं.

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मै कहना चाहता हूँ वो हिंदी भाषा-क्षेत्र से आने वाले विद्यार्थियों के सन्दर्भ में है. मीडियम आंग्लभाषा है पठन-पाठन की; तो अचानक से उन्हें सबकुछ सीख लेना होता है. उनकी प्रतियोगिता उन्हीं लोगों से होती है जो इंग्लिश बैकग्राउंड से होते हैं. भारत में हर राज्य की शिक्षा प्रणाली अलग-अलग है. उत्तर-प्रदेश में, जहाँ अभी हाल तक A B C D कक्षा- छह से पढाई जाती रही है. और बाकि कई दूसरे राज्य जहाँ अंग्रेजी, प्राम्भिक स्तर से ही पढाई जाती है. यह विभेद शिक्षा के उच्च स्तर पर आकर खासा निर्णायक हो जाता है. सिलेबस का दबाव इतना कि इतना समय नहीं कि इस विभेद को पाटने की कवायद भी की जाए. वैसे कैम्पस में एक रीमीडिएल कोर्स चलता है अनौपचारिक रूप से पर वह ना तो पर्याप्त ही है और ना ही उसका संतोषजनक स्तर ही है. मै थोड़ा भाग्यशाली रहा हूँ कि इंग्लिश में हाथ उतना तंग नहीं है पर मैं देखता हूँ कि पहले सेमेस्टर में कुछ बंधुओं का क्या हाल होता है. JNU में प्रवेश की खुशी फुर्र से उड़ जाती है और सांस थामकर चीजें जल्द से जल्द सींख लेनी होती हैं.

मेरा मंतव्य किसी को दोष देना नहीं है. यह समस्या नहीं होती यदि हर राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक स्तर पर मौलिक समानता होती..कई जरूरी विभिन्नताओं के साथ. विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी नहीं है, उनके प्रयत्नों को भी कम करके नहीं आँका जा सकता पर जो मानसिक तनाव उन्हें झेलना पड़ता है वह कई बार उनके मनोबल को तोड़ देता है और अध्यापकगण सहानुभूति रखकर भी कुछ ख़ास सहायता नहीं कर पाते.

*अब काफी सुधार हो चूका है, इस दिशा में !

(श्रीश पाठक 'प्रखर ')

Thursday, November 12, 2009

नवोत्पल साहित्यिक मंच

डॉ. श्रीश 
मै हमेशा सोचता हूँ कि ब्लॉग से लोगों की डायरियों के भीतर रचा जा रहा साहित्य बाहर निकला है. साहित्य यदि समाज का दर्पण है तो इसे रचने-गढ़ने और पढ़ने में समाज का हर व्यक्ति शामिल होना चाहिये. ब्लाग के माध्यम से यह संभव हो सका है. अब कोई स्थापना टिप्पणियों से निर्भय नहीं रह सकती. इसप्रकार लेखन का एक प्रकार का लोकतंत्रीकरण संभव हुआ है. इस स्पेस का लाभ उठाते हुए इस ब्लॉग की प्रस्तावना है. इस ब्लॉग में नवोदित कवियों की रचनाएँ होंगी और समय-समय पर साहित्यिक चर्चाएँ होंगी.

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्विद्यालय, गोरखपुर में हम कुछ लोगों ने इस प्रस्थापना के साथ कि "..प्रतिभाएं भी मंच की मोहताज होती हैं..' एक साहित्यिक मंच का सञ्चालन प्रारंभ किया था. विनय मिश्र जी ने इसका विचार किया था, अभिषेक शुक्ल 'निश्छल' ने इसका नामकरण "नवोत्पल साहित्यिक मंच" किया था. चेतना पाण्डेय, प्रेम शंकर मिश्र, अनुपमा त्रिपाठी, खुशबू, रोशन, अंशुमाली, राजेश सिंह, अमित श्रीवास्तव, जयकृष्ण मिश्र 'अमन', आदि ढेरों लोगों ने इसे अपने श्रम-स्वेद से सींचकर इसे सफल बनाया था. विश्विद्यालय में साहित्यिक गतिविधियों की बहार छा गयी थी. कविता जिसे एक बोर चीज समझा जाता था, नवोत्पल के कार्यक्रमों में आती भीड़ ने ये साबित कर दिया कि दरअसल कवितायेँ तो जीवंत होती हैं, थोड़ा माहौल होना चाहिए उसके अनुशीलन के लिए. सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि ये रही थी नवोत्पल की कि इसने विश्विद्यालय और बहुधा विश्वविध्यालय के इतर भी यह सन्देश जमा दिया था कि कविता सिर्फ साहित्यकारों की चीज नहीं है, एक आम इन्सान भी अपने रोजमर्रा जीवन की आपा-धापी लिख सकता है और वह लेखन भी कविता का शक्ल ले सकता है. निश्चित ही हम लघु स्तर पर प्रयास कर रहे थे, पर हमारी उस सामयिक सफलता ने हम सभी में टीम-स्पिरिट और हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास भी क्रमशः करवाया था.

यह ब्लॉग उसी नवोत्पल साहित्यिक मंच, गोरखपुर की स्मृति में निर्मित है. इसमे आप अपनी रचनाएँ, साहित्य पर अपने विचार, अपने किसी विशिष्ट साहित्यिक अनुभव को नवोत्पल के साथ बाँट सकते हैं, सीधे इस पते पर मेल करके..navotpal@gmail.com



आप सभी सुधीजनों का सुस्वागत है...श्रीश पाठक 'प्रखर'

Wednesday, November 11, 2009

प्रभाष जी को गोरखपुर ने निराश नहीं किया-रोहित पाण्डेय

[प्रभाष जोशी जी एक साथ ही समकालीन समय में विशिष्ट रहे, सर्वसुलभ रहे और संपर्क में आने-वाले हर छोटे -बड़े से एक आत्मीय रिश्ता भी निर्मित कर सके ..तो फिर देखो ना सबके पास उनके लिए 'अपने शब्द' हैं. रोहित जी लिखते-लिखते कलम रख देते हैं ; भाव-विह्वल हो जाते हैं... यह जोशी जी की शक्ति थी एक दूसरे के सरोकार में एकाकार होने की....महामना को मेरी विनम्र श्रद्धांजली...श्रीश पाठक ]

          प्रभाष जोशी  


जोशी जी नहीं रहे। मोहित ने यही बताया था। मुझे समझने में समय नहीं लगा। भला मेरे घर में किसी और जोशी के रहने, नहीं रहने से क्या फर्क पड़ता। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया. रात के 2.45 और सुबह 6 बजे के फोन को नजरंदाज करके सो गया था। प्रभाष जी नहीं रहे। यकीन नहीं हो पा रहा था खुद को। अभी तो कितनी बातें उनसे हुई थी और अबकी पत्रकारिता दिवस (30 मई 2010) को तो उन्हें गोरखपुर से पत्रकारिता के आंतरिक भष्टाचार की वर्ष गांठ मनानी थी। प्रभाष जी और श्री अच्युतानंदन मिश्र भी इस बात से सहमत थे कि ऐसे भ्रष्टाचार से हमला दिल्ली में बैठकर नहीं बोला जा सकता। इसके लिए छोटे शहर से ही आवाज उठनी चाहिए। और पत्रकारों की अगर मजबूरियां हैं तो पाठकों को मंच बनाकर आगे आना होगा।

प्रभाष जी को गोरखपुर ने निराश नहीं किया। वहां पाठक मंच भी बना। और तो और अपने अजय श्रीवास्तव ने प्रभाष जी के राय साहब (राम बहादुर राय) के प्रथम प्रवक्ता में खबर भी छाप दी कि- स्पेस बिकता है खरीदोगे क्या? प्रभाष जी को इसकी आहट थी कि पैसा लेकर खबर बेचने का धंधा इस बार के चुनाव में पूरी निर्लज्जता के साथ किया जाएगा। इसीलिए जब वह अपने भाषणों में चुनाव पूर्व ही इस धनकरम पर चिंता जाहिर करना शुरु कर दिया था। हमारे माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल ने पत्रकारिता के पुरखों को याद करने का एक अनूठा अभियान चलाया। गणेश शंकर विद्यार्थी को कानपुर में याद करने के बाद बनारस में पराड़कर जी को याद करना था। पराड़कर के संदर्भ में आज की पत्रकारिता को देखना था। जांच करना था। नागरी प्रचारिणी हाल में प्रभाष जी, नामवर जी मौजूद थे। प्रभाष जी बोलने के लिए खड़े हुए अभी रौ में आते कि उनके माथे से पसीना टपकने लगा। मुश्किल से दस मिनट बोले और यह कहकर बैठ गए कि एड़ी में बहुत दर्द हो रहा है। मुझसे कहा कि पूरा कार्यक्रम देखकर आओ।

प्रभाष जी ने बीएचयू का आतिथ्य स्वीकार किया था इसलिए कार्यक्रम से सीधे बीएचयू गेस्ट हाउस पहुंचे। वहां प्रबंधक दक्षिण भारत के सज्जन थे। उन्होंने प्रभाष जी का लिखा हुआ दिल्ली फैक्स कराने का इंतजाम करने के लिए हामी भर दी। जब मैं बीएचयू पहुंचा तो तीन पेज लिखा जा चुका था। यह कागद कारे नहीं था। यह तहलका के लिए था। सुगढ़ लिखावट में दर्द की छटपटाहट नहीं दिख रही थी। बल्कि जैसे एड़ी से निकल कर हाथ के जरिए कलम में समा गया था और वह हर लाइन में निचुर रहा था। मैं उनके कमरे तक पहुंचा तो मेरा मौन व्रत पूरा हो चुका था। मैंने कहा इतना दर्द है और आप लिख रहे हैं। प्रभाष जी ने कहा पंडित रोहित कुमार लिखने से दर्द हल्का होता है। फिर तहलका की डेड लाइन थी। फिर उन्होने उनके बाद हुए भाषणों का सार तत्व पूछा। किसने क्या कहा इसके बजाय उन्होंने कहा कि निष्कर्ष क्या निकला। मैं चुप था। उन्होने कहा कि मौनी बाबा यह समय बोलने का है चुप रहने का नहीं। मैनें कहा कि वैसे तो मैं बहुत बोलता हूं मगर विद्वानों-बुजुर्गों की सभा में चुप रहता हूं। प्रभाष जी हंसे और बोले- अब इस देश को विद्वान और बुजुर्ग नहीं नौजवान चाहिए । देखना आने वाले लोकसभा में जनता के एक मात्र हथियार वोट को भी बाजार में खड़ा कर दिया जाएगा। जो जमानत नहीं बचा सकेगा उस उम्मीदवार को हमारे अखबार प्रचंड बहुमत दिलाएंगे।

एड़ी का दर्द जब तब उभरता उसकी चिंता छोड़ देश के भविष्य और मीडिया की विश्वसनीयता की चिंता उन्हे खाए जा रही थी। उन्हे आराम करने के लिए कहा तो अंगूठे को तर्जनी अंगुली पर मारते हुए पूछे वो है क्या? मैं जेब से मोबाइल निकाला उनके घर मिलाया। प्रभाष जी ने तहलका के दफ्तर में कालम साफ-साफ पहुंच जाने की पुष्टि की। फिर अपने दर्द पर थोड़ी चर्चा। एड़ी में दर्द की वजह ब्लड शुगर बताया और बड़ी पेन निकालकर अपने शरीर में घुसाया। फिर हमारे खाने पीने की चिंता करने लगे। आश्वस्त हुए तो कहा दर्द जाता नहीं यार। लगभग छटपटाहट की स्थिति में थे प्रभाष जी। उनके बगल वाला कमरा नामवर सिंह जी का था मगर नामवर जी अपने गांव किसी की मृत्यु पर शोक में शामिल होने गए थे। मेरे साथ आशुतोष सिंह और मैं एड़ी में जेल आदि लगाकर थोड़ी राहत देने की कोशिश की। बात-बात में खिलाड़ियों की चोट की भी चर्चा उभर आई। प्रभाष जी अब चौके छक्के लगाने लगे। सीके नायडू से लेकर सचिन तेंदुलकर की चोटें और उनके मैच पर पड़े प्रभाव की बातें। अंतहीन बातें। रात को दस बज गए प्रभाष जी अपने मुख्य विषय पर आ गए। पैसे लेकर खबरें बेचने के विरुद्ध अभियान उनका अभीष्ट था। उन्हे भरोसा था कि माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय इस पर कुछ करेगी। उन्होंने कहा कि अच्युता बाबू ये सब गहराई से सोचते हैं। फिर उन्होंने कहा कि पाठक मंच बनावाओ। उसमें गोष्ठियां प्रदर्शनियां करवाओ। पता नहीं क्या सोच कर कहा, लेकिन पंडित तुम तो वर्किंग जर्नलिस्ट हो। उन्होने रास्ता भी सुझाया। मैं सुनकर आश्चर्य में पड़ गया कि अभी एक दिन पहले यही रास्ता तो गुरु जी ने बताया था गुरु जी अर्थात प्रभाष जी के अच्युता बाबू। प्रभाष जी नहीं रहे। गुरु जी हैं। मैं हूं। वह त्रिकोण टूट गया। अब और नहीं लिख सकता। पता नहीं किस ओर से प्रभाष जी आएं और कहें पंडित आपको तो डाक्टर ने आराम करने के लिए कहा है और मेरे कंधो को हल्के से दबा कर लिखने का स्वीच ऑफ कर दें।

रोहित पांडेय- पत्रकार गोरखपुर

Monday, November 9, 2009

वह प्राणवान भावावेश: प्रभाष जोशी

रात दो बजे मोबाइल की घंटी बजी तो एक बार तो बंद कर दी। पर वह फिर बजी। दूसरी तरफ रवीन्द्र त्रिपाठी थे। एक दुखद खबर, इससे शुरू कर खबर दी की प्रभाषजी का निधन हो गया। अरे! कहकर मोबाइल काट दिया। मेरा अरे सुनकर पत्नी जग गई। पूछा तो बताया। फिर नींद कहां थी! आकर बाहर हाल में बैठ गए और मैंने त्रिपाठीजी को फिर फोन लगाया और पूछा, क्या क्रिकेट के भावावेश ने उनका समापन कर दिया। उत्तर मिला, हां। यादों में भाई साहब छाते चले गए। उनके बारे में अंतिम खबर क्रिकेट से जुड़ी थी तो याद आई छब्बीस नवंबर 1976 में उनसे पहली मुलाकात। पटना में जेपी के घर में। कोलकाता से जबलपुर लौटते हुए पटना पड़ा तो मैं उतर पड़ा और कदमकुआं के उस प्रसिद्ध घर में पहुंच गया। नौ-दस का समय होगा। भीड़ थी। प्रभाषजी ने नाम पूछा और फिर जेपी से परिचय कराया। वे मेरे परिवार से परिचित थे। उसके बाद वे कुछ देर को गायब हो गए। थोड़ी देर बाद बचे जेपी और मैं। काफी बातें हुईं। खाना खाया। इस बीच मेरी नजर उस हाल के बाएं सिरे के कमरे में गई थी और मैंने देखा कि प्रभाषजी ट्रांजिस्टर सामने रखे कामेंट्री सुन रहे थे। वे उसी में रमे रहे। उनसे पहली मुलाकात और उनके बारे में अंतिम खबर विचित्र रूप से  क्रिकेट से जुड़ी थी जिसके वे दिवानावार आशिक थे। सचिन उनके लिए बड़ी हद तक आलोचना से परे थे और खेल के मामले में वे अतिशय देशप्रेमी थे। इन दोनों की भूमिका उनके उस भावावेश में थी जो दरअसल उनकी शायद सबसे बड़ी पूंजी भी थी।

 कहीं पढ़ा था, शायद बच्चनजी की मेरे विदेश प्रवास की डायरीज् में जहां वे गांधी की मृत्यु के संबंध में कहते हैं कि कई बार मृत्यु बताती है कि जीवन कैसा जिया। जिस भावावेश ने उनके प्राण हर लिए वही उन्हें प्राणवान और जीवंत रखे हुए था। वे एक विकल भारतीय आत्मा थे। एक जिद्दी धुन उनके अंदर हमेशा बजती रहती थी। बीमारी हो या और भी कोई विकट समस्या उनका जुनून उन्हें बेचैन और सक्रिय रखता था। प्रसंगवश प्रभाष जोशी-60 नामक जो पुस्तक उनकी षष्ठपूर्ति पर आई उसमें जीज् यानी उनकी मां लीलाबाई जोशी का, जो शायद अगले साल सौ वर्ष की हो जाएंगी, मालवी में लेख था। शुरू में ही वे कहती हैं, ‘जसो छुटपन में थी असो को असोज है अब भी। जरा सी भी फरक नी आयो। बस! जिना काम की धुन लगी, उसके पूरो करकेज छोड़ तो, भोत जिद्दी थे। म्हारे लगे है कि हना जिद्दीपन कई कारण आज इत्तो बड़ो आदमी बन्यो है। भावना और उससे विभोर होकर ही वे जिये। अखबार का काम हो, लिखना, बोलना, सुनना, देखना सब बहुत उत्कंठित होता था। जनसत्ता जब थोड़ा शिथिल हुआ तो एक मीटिंग ली और बोले, भाई अब वो मजा नहीं आ रहा। दफ्तर आना-जाना जिस हुमकते हुए होता था अब ऐसा नहीं हो रहा। गरज यह कि वे सब में उसी उछाल की वही लय चाहते थे।

 जनसत्ता काम करने की अद्भुत जगह हुआ करती थी। गजब का दोस्ताना और खिलंदड़ापन। अनंत बहसें। और डेटलाइन आते-आते गजब की मुस्तैदी। डेटलाइन गड़बड़ाने वाले व्यक्ति वैसे प्रभाषजी ही हुआ करते थे, जब-जब उनका लेख जाने वाला हो। लेकिन यह जो खुलापन और अनौपचारिक माहौल था वह उन्हीं की देन थी। आप डेढ़-दो महीने छुट्टी मनाकर आइए। जहां जाइए जनसत्ता के यश के चैन से मजे लूटिए और आकर मेज की गर्द झाड़कर काम में लग जाइए। कोई लाबिंग, उठा-पटक, जोड़-तोड़ नहीं। शुरू में उन्होंने कई महीने सबके साथ बैठकर खूब मेहनत की कि कैसा अखबार निकालना है, फिर जब निकला तो कहीं कोई हस्तक्षेप नहीं। मैगजीन की मंगलेशजी जाने, न्यूजरूम की न्यूज एडीटर और चीफ-सब। लेकिन अपने लिखने-पढ़ने-करने से उनकी उपस्थिति हमेशा बनी रहती थी। शाम या कभी देर रात डेस्क पर एक राउंड। सबसे चुहल। हंसी-मजाक। वहां भी उनका मुख्य डेस्टीनेशन खेल डेस्क होती जहां कुछ ज्यादा रुकते। काली स्याही से लिखी उनकी कापी बेहद साफ-सुथरी होती, बिना काटकूट की, जिसके अंत में हमेशा शीर्षक रहता था। वे एक बैठक और एक उत्तेजना में लिखते थे। वे आगे होकर नेतृत्व करने वाले संपादक थे। टोंका-टोकी वाले नहीं। खुद करके सिखाने वाले। बजट के दिन अचानक आएंगे और कहेंगे, क्यों पंडित गरीबों को झुनझुना, अमीरों को पालनाज् कैसा रहेगा।

उनके सिखाने का तरीका यही था। वैसे जनसत्ता एक ऐसा अखबार भी रहा है जिसमें जितनी तरह की गलतियां हो सकतीं वे होती रहती थीं। कुछेक बार ही उनका धीरज टूटा, लेकिन काम करते हुए खुद सीखो वाली बात कायम रही। एक बार लोग कम थे या कुछ काम ज्यादा था तो मैंने कहा कि भाई साहब कैसे होगा! उन्होंने कहा, नायक साब, क्राइसिस में ही मेटल का पता चलता है। शायद जनसत्ता के लोगों के मन में ये सब बातें सतत् रहती थीं इसलिए हमेशा संकटों में जनसत्ता ज्यादा निखरकर आया। एक बार मैं एडिट पेज देख रहा था। प्रभाषजी का मुख्य लेख था। उसमें दसेक लाइन ज्यादा थी। उनका अता-पता नहीं। मोबाइल का जमाना आया नहीं था। घर में भी नहीं। अंतत: मैंने दस लाइनें काट दी। दूसरे दिन दफ्तर में घुसते ही टकरा गए। दूर से ही हाथ के इशारे से कहा-काट दीं। मैंने कहा और क्या करता। बोले ठीक जगह से काटीं। मतलब यह कि नाक से ऊपर पानी आने पर ही उन्होंने सख्ती की। दफ्तर को उन्होंने अत्यंत लोकतांत्रिक रखा। इसका कुछ गलत असर भी पड़ा। सब बड़े वहां भाई साहब थे इसलिए एक अजब भाई साहबवाद आ गया था। गलती हुई तो, अरे भाई साहब! उन्होंने खूब स्वायत्तता दी जो कहीं-कहीं स्वेच्छाचारिता में भी बदल गई।

जनसत्ता के जरिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की रूढ़ि तोड़ी। उसे औपचारिक और सरकारी विज्ञप्ति की भाषा के खांचे से निकाला और कलेवर बदला, उसमें गहरे सरोकार जोड़े उस सबका बखान बहुत और सही होता है, लेकिन जिन लोगों को प्रजानीति की याद है वे जानते होंगे कि वहां भी अलग पत्रकारिता थी और मुहावरा सबसे अलग था। खबर-दार, बेखबर जसे कालम और सधी रिपोर्टें। उम्दा टीम। प्रभाषजी ने जनसत्ता में भी बिलकुल यही किया। प्रजानीति जनसत्ता का प्रस्थान बिंदु था। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप अब भाजपा और तब जनसंघ के प्रभाव में काफी रहा है। जेपी के आंदोलन में जनसंघ का वर्चस्व था। तब प्रजानीति में खुद प्रभाषजी की एक दो रिपोर्टे लंबे समय तक खटकती रहीं। लेकिन प्रभाषजी इस मायने में विलक्षण थे कि उन्हें समझ में आ जाए कि मामला अब ठीक नहीं तो उसके विरोध में खड़े होने में देर नहीं लगाते थे। बाबरी ध्वंस के बाद उन्होंने संघ परिवार की जसी खबर ली और जसी लेते रहे वैसा तो पहले कभी किसी ने किया ही नहीं।

प्रभाषजी जिस तरह अखबार के कामकाज से धीरे-धीरे दूर होते गए उससे कोफ्त होती थी। उसका असर जनसत्ता पर भी पड़ा। पर दूसरी दृष्टि से देखें तो उन्होंने अखबार को जमाया और दूसरे ऐसे कार्यो में लगे जो बेहद जरूरी थे। हर तरह के सामाजिक सवाल उन्हें मथते थे। इसलिए ऐसे हर जरूरी मंच पर वे खड़े दिखते। घूमते-फिरते अपने सरोकारों की अलख जगाते। प्रभाषजी आजादी के बाद युवा हुए और सक्रिय हुए पर उनकी जड़ें आजादी के पूर्व के समय में थी। वही सरोकार, वही निष्ठा। पत्रकारिता-आंदोलन में कोई फर्क नहीं। इस सबके बीच संगीत, क्रिकेट और आत्मीयों के लिए समय भी खूब निकालते। गुणाकर मूले की शोकसभा में वे देर से पहुंचे। हिंदी भवन में उस दिन मृत्यु से एक हफ्ते पहले आखिरी मुलाकात थी। पीछे पड़े कि एक गाना सुनाना है। मंगलेशजी, जोसफ गाथिया और मैं और वे उनकी वहीं बाहर खड़ी गाड़ी में बैठे और पंद्रह मिनट तक संगीत सुनते रहे।

 उनकी पत्रकारिता और विचारों पर कई जगह एतराज हो सकता है पर उन्हें विरोध की कोई परवाह भी नहीं थी। जो सही लगता उसे बेलाग, दो-टूक कहते। बहत्तर वर्ष उनके बेहद सक्रिय और सार्थक थे। सचिन जिता नहीं पाए तो यह भी क्रिकेट की भव्य अनिश्चितता का ही कमाल है। और जीवन तो सब खेलों से बड़ा खेल है उसकी अनिश्चितताएं भी भव्यतर हैं। प्रभाषजी का एकाएक जाना भी इसी में शुमार है। सदमा तो लगा पर ऐसे सच्चे, संजीदा, सजग, संवेदनशील और आत्मीय व्यक्ति के जाने पर  शोक की इजाजत नहीं होनी चाहिए। उषा भाभी, संदीप, सोनल और सोपान ने जो अमूल्य खोया वह हिंदी समाज, पत्रकारिता, जनांदोलनों और उनके असंख्य प्रशंसकों ने भी खोया है। छाया की तरह साथ रहने वाले अपने सचिव महादेव देसाई की मृत्यु पर गांधीजी ने उनकी पत्नी को आगा खां पैलेस से चिट्ठी लिखी थी- शोक की इजाजत नहीं। मैं तुमसे ज्यादा विधवा हो गया हूं।

 (लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं)