नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, January 26, 2017

#12# साप्ताहिक चयन:नव सामान्य के युग में / 'विकास द्विवेदी'

Vikas Dwivedi
रचना के बीज हमारे चारो ओर बिखरे पड़े हैं। एक रचनाकार की दृष्टि उसे देखती है, परखती है, पकाती-पचाती है, तब कोई कविता अवतरित होती है। रचनाकार होना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। यह दृष्टि और जिम्मेदारी तब और भी ज़्यादा गम्भीर हो जाती है, जब वह साहित्य-शिक्षक तथा पत्रकार भी हो। राष्ट्रीय राजनीति  के केंद्र दिल्ली में रह रहे 'विकास द्विवेदी' जी "समकालीन कविता" पर शोध कार्य करने के पश्चात्  साहित्य अध्यापन, स्वतन्त्र लेखन, अनुवाद कार्य और स्वतन्त्र पत्रकारिता में सक्रिय हैं।


आज सड़सठ साल जो हुए गणतंत्र के, और इस तंत्र का गण अपने भरे-पुरे मन के साथ बहुधा लोकतंत्र में अनुपस्थित है, फिर इस वार्षिक उल्लास के मायनों में गोते लगाना समीचीन ही है।  बदलता हुआ सामाजिक परिवेश, पतित होते सांस्कृतिक मूल्य, मानव-मानव के बीच बढ़ती खाई...... यही अनुभूतियाँ आपकी रचना के केंद्र में है। आपकी कविता पर अपना अनुपम अभिमत दे रहे हैं, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी जी।  आप दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के सहायक प्राध्यापक हैं, अवधी साहित्य के आधुनिक सजग-प्रखर प्रसारकों में एक हैं और एक कुशल कलमकार भी हैं।


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नव सामान्य के युग में

हत्या बलात्कार य़ातना
और आसपास हो रहे अनगिन
जघन्य पाशविक कृत्य
बन गए हैं महज सूचना
अब नहीं करते हमें हैरान परेशान
अब हम नव सामान्य युग में हैं

कल तक जो कुछ भी था
आपत्ति जनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता और समाज के चेहरे पर कलंक
अब वैसा नहीं है 

जो आज है
आपत्ति जनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता और समाज के चेहरे पर कलंक
कल वैसा नहीं रहेगा

वह रोज रोज दिखते दिखते
हमारे आसपास
हो जाएगा  बहुत सामान्य सा
हमेशा की तरह
हम बन्द कर देंगे उससे नफरत
बगैर ठोस प्रतिकार के
चेतना के एक कोने में हम दफन कर देंगे
उसके लिए प्रयोग होने वाले
सारे खराब शब्द
स्वीकार करते अपनी ज़िन्दगी
अपने समाज का अनिवार्य जैसा

फिर पूरी बेशर्मी से
लगाएंगे ठहाके
पिएंगे चाय काफी बियर
खुशी खुशी जाएंगे सिनेमा

हम नव सामान्य के युग में जी रहे हैं
उस सबको नित बनाता सामान्य
जो कल तक रहता आया बहुत ही असामान्य

नव सामान्य का कमाल यह
जो कल तक था अजनतांत्रिक
अब हो गया जनतांत्रिक
जो कुछ भी था अमानवीय
अब दिखने लगा सहज
जो कल तक था बहुत असामाजिक
वह सामाजिक बन हो गया
सहज स्वीकार्य


अब इसी नव सामान्य की परिधि में
हम परिभाषित करेंगे अपना चेहरा
और खुश रहेंगे
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कार्टून साभार: द हिन्दू 

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समय और समाज के संवेदनहीन होने का खतरा हर समय और समाज में रहता है। ऐसा हो यानी संवेदनहीनता का पसारा हो, इसके लिए साहित्य और कलाएँ अपना दायित्व निभाती हैं और उस उदात्त(जिसकी चर्चा लोंजाइनेस ने की है) को बनाए/बचाए रखने का काम करती है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की सतत चेष्टा करता है। अकारण नहीं है कि साहित्य-संगीत-कला विहीनकोसींग-पूछ विहीनपशु ही समझा गया है जो तृण नहीं खाता। अधिक सौभाग्यशाली तो पशु होगा फिर। कविता का कार्य मनुष्य के भीतर जड़ता भर रहे भावों के खिलाफ संवेदनशीलता की संवेदनशीलता की कार्रवाई को सुनिश्चित करना है। विकास द्विवेदी की कवितानव सामान्य के युग मेंइसी कार्रवाही में संलग्न कविता है।

नव सामान्यशब्द-युग्म दिलचस्प है। कविता में दूसरी जगहों पर भी संवेदनहीनता कीसामान्यताको रेखांकित किया गया है। यकीनन युगों और समाजों में यह खतरा उतना ही सामान्य है जितना इसके प्रतिरोध की परंपरा।नव सामान्यका अभिप्राय यह सामान्यता नये समय, हमारे आधुनिक समय में, कैसी है? या जैसी है उसमें हो क्या रहा है। पूर्व सामान्य से यह नव सामान्य कैसे अलग है। इस सिलसिले पर कवि का ध्यान है:

कल तक जो कुछ भी था
आपत्तिजनक
निन्दनीय
घृणित
मनुष्यता और समाज के चेहरे पर कलंक
अब वैसा नहीं

सामान्य प्रवृत्ति या सच की नवता में अब समस्याएँ नयी तरह की हैं। इस नये में गति है। ठहराव नहीं। सूचनाओं का अंबार है। अनुभूतियाँ नहीं। संवेग हैं। सुकून नहीं। ठहराव, अनुभूति और सुकून का जोखिम लेने के लिए नव मानुस तैयार नहीं। वजह है, ‘स्पर्धा की हड़बड़ी दौड़ में सभी। कहाँ जाना है, बिना इसे विचारे। यह जो बिना विचारे का भाव है, यही विसंगति और त्रासदी के मूल में है।

जीवन जीना एक शैली, रूढ़ अर्थ में, हो गयी है। सब उसी शैली में ढल जाने को जीना मानते हैं। यह शैली, ज्ञान-अनुभूति-विवेक सभी पर हावी है। इस शैली के, इस ढर्रे के पार जाएँ तो जाएँ कैसे। बहुत लोग जिस धारा में बह रहे हों, भले वह कर्मनाशा की धारा हो, वही बेहतर। यही रूढ़ जीवन शैली उघाड़ी गयी है, कविता में:

फिर पूरी बेशर्मी से
लगाएँगे ठहाके
पिएँगे चाय काफी बियर
ख़ुशी ख़ुशी जाएँगे सिनेमा

इस कविता में इस विडंबना को दिखाया गया है कि एक तरफ़ तो इंसान का दिमाग तो काफी तरक्की की ओर बढ़ गया है तो दूसरी तरफ़ उसके दिल का दायरा संकुचित हो गया है। कविता भावयोग की साधना कही गयी है। कविता द्वारा हृदय-पक्ष के संकुचित होने को लक्षित किया जाना स्वाभाविक और अनिवार्य है। इस अनिवार्य भूमिका के लिए कवि और कविता को बधाई! आगे भी इस जरूरी दाय को निभाया जाय, ऐसी शुभकामनाएँ!
Amrendra Nath Tripathi 

Thursday, January 19, 2017

#11# साप्ताहिक चयन:शीत और प्रेम/ 'लवली गोस्वामी'

एक सशक्त स्त्री, जिसे मिथक मोहते हों, सजग इतनी कि यह पड़ताल भी करती चलती है कि कहीं स्त्री खुद महज मिथ तो नहीं बना दी गयी है. दखल प्रकाशन से एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता’ प्रकाशित. कलम से जो एक सम्मोहन रचती हों, ऐसी संवेदनशीलता वाली रचनाकार हैं लवली गोस्वामी जी. आपकी कविता शीत और प्रेम आज की चयनित साप्ताहिक प्रविष्टि है.

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शीत और प्रेम

मेरे लिए प्रेम मौन के स्नायु में गूंजने वाला अविकल संगीत है
तुम्हारा मौन प्रेम के दस्तावेजों पर तुम्हारे अंगूठे की छाप है
रात का तीसरा प्रहर
कलाओं के संदेशवाहक का प्रहर होता  है
जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मै श्रृंगार छोड़ देती हूँ
जब सुन्दर चित्रों की सब रेखाएं
तुम्हारे माथे की झुरिओं का रूप ले लेती हैं
मैं उष्ण सपनों के रंगीन ऊन पानी में बहाकर
सर्दी की प्रतीक्षा करती हूँ

सर्दियाँ यमराज की ऋतु है
सर्दियाँ पार करने के आशीर्वाद हमारी परम्परा हैं
* पश्येम शरदः शतम्
** जीवेम शरदः शतम्
मृत्यु का अर्थ देह से उष्णता का लोप है
तो शीत प्रेम का विलोम है
अक्सर सर्दियों में बर्फ के फूलों सा खिलता तुम्हारा प्रेम मेरी मृत्यु है

तुम मृत्यु के देवता हो
तुम्हारे कंठ का विष अब तुम्हारे अधरों पर हैं
तुम्हारे बाहुपाश यम के पाश हैं
सर्दिओं में साँस - नली नित संकीर्ण होती जाती है
आओ कि  आलिंगन में भर लो और स्वाँस थम जाये
न हो तो बस इतने धीरे से छू लो होंठ ही
कि प्राणों का अंत हो जाये

चित्र में खुशबू-छायांकन:सुशील कृष्णेत 


तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी
तुममे सांसों  से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुंचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

मेरे बालों में झाँकते सफ़ेद रेशम
जब तुम्हारे सीने पर बिखरेंगे
गहरे नील ताल के सफ़ेद राजहंसों में बदल जायेगे
ताल, जिसे नानक ने छड़ी से छू दिया कभी न जमने के लिए
हंस, जो लोककथा में बिछड़ गए कभी न मिलने के लिए
मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा - तुम्हारा वियोग हैं

मेरे मोर पँख, कहाँ हो
मेरा जूडा अलंकार विहीन है
मेरी बांसुरी, मेरी सृष्टि लयहीन है.

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# "पश्येम शरदः शतम्" - हम सौ शरदों तक देखें, सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे.
#" जीवेम शरदः शतम् "  - हम सौ शरदों तक जीवित रहें .


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व्याख्यातीत हैं प्रेम व जीवन ये दो विषय, यकीनन, परन्तु इन पर व्याख्याओं की अतिशयता कई बार यह भ्रम पैदा करती है कि इन व्याख्याओं में ही जैसे जीवन हो अथवा इनमें ही प्रेम महकता हो. सच तो यही है कि शब्द चूक जाते हैं, उस महसूसे को कहने में जो जीवन और प्रेम में महसूसा जाता है. हाँ, कविता वो अद्भुत विधा है, जहाँ उस अबोले को बोल पाने की गुंजायश सर्वाधिक है; अगर कवि चितेरा हो, शब्द-मितव्ययी हो और शब्दों की स्वाभाविक साधना भी उसने साधी हो. स्वाभाविकता की सीपी में ही यथार्थ का सत सुरक्षित रहता है. उस स्वाभाविकता के साथ कवयित्री ने एक अद्भुत कविता रची है. ईश्क को तो दीवानों ने चाय की वो केतली कह दी है, कमबख्त जिसे बार-बार गरमानी पड़ती है, पर यहाँ तो कवयित्री ने प्रेम के साथ शीत का पैमाना कसा है.

‘मेरे लिए प्रेम....’ 

इन शब्दों से प्रारम्भ होती है कविता. स्पष्ट है कि कवयित्री प्रेम की अपनी प्रतीति पर कह रही है. यह स्पष्टता स्थापित करती है कि शब्दकार प्रेम को लेकर किसी ऐसे अहं का शिकार कत्तई नहीं है, जो उसे प्रेम की सार्वत्रिक व्याख्या के लिए उकसाती हो. यह एक सुन्दर प्रस्थान है कविता-यात्रा की. अहा...प्रेमिका के लिए प्रेम यहाँ वह संगीत है जो मौन के स्नायु में अविकल झंकृत होता है. कविता तो मानों इसी पहली पंक्ति में ही अपनी इयत्ता स्थापित कर लेती है, पश्चात इसके तो बस जैसे महात्म्य शेष रहता हो. मौन का संगीत और स्नायुओं में बहता अविकल स्पंदन. मौन यानी एक प्रकार की स्वीकार्यता व सततता की जाग्रत समाधि और प्रेम का मौन तो एक संगीत सरीखी समाधि, अविकल; वैसा उदात्त प्रेम ही उसके अस्तित्व का स्पंदन है.  वहीं, प्रेमी का प्रेम; प्रेम के समस्त पैमानों पर उसकी सम्मति है. 

रात के पहले, दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा अथवा संयोग का ताप त्रियामा तक निर्णायक हो जाता है.
रचनात्मकता के नए नए कलेवर सूझते हैं. 
कला व कलाकार एकाकार हो उठते हैं, मानो. और फिर हर दर्पण पर जब प्रियतम की मुसकाती छवि उभरने लग जाती है तो शृंगार अपनी प्रासंगिकता खोने लग जाता है.

जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मै शृंगार छोड़ देती हूँ.

यह प्रेमिका का युवपन का समर्पण है, जो यहीं कहाँ थमेगा अभी. 
वह तैयार है जीवन के मध्याह्न एवं अपरान्ह के लिए भी. 
जो स्वप्न बुने गए हों प्रेम की पारस्परिक उष्मा में, जिन स्वप्नों ने अब तक जब तब क्षण क्षण के रोचक आयाम सिरजे हों, समय के साथ उनके बिना भी चलने का माद्दा भी है इस प्रेम में और अनंत की यात्रा के लिए भी यह प्रेम तैयार दिखता है. जीवन सूर्य से ही है. उष्मा से ही स्पंदन है. पर शीत तो मृत्यु की ओर उद्द्यत करती है. देह से उष्णता का लोप ही तो मृत्यु है. पर उस शीत में भी प्रेम बर्फ़ के फूलों की मानिंद उभर आया है...तो क्या हुआ मृत्यु आलिंगन की औपचारिकता निभानी पड़ी है. 

तुम यम भी हो तो मेरे प्यारे यम हो. जीवन के तमाम दुर्घर्ष का विष जो इकठ्ठा है तुम्हारे कंठ में, जिसे चुपचाप तुम पीते गए हो जीवन के साथ वो अब शीत ऋतु के पश्चात तुम्हारे अधरों तक छलक आयी है...उसे पीने के लिए मै प्रेमपगी तैयार हूँ, प्राण तुच्छ हैं जो ये साझेदारी का आलाप संभव हो सकें. 

तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी

इन पंक्तियों में कवयित्री ने प्रचलित-पारम्परिक साहित्यिक बिम्बों में व्याप्त पितृसत्तात्मक पक्षपात को अनायास ही सहसा चुनौती दे दी है. यहाँ बांसुरी प्रेमी है, स्वर प्रेमिका के हैं. सरंचना प्रेमी से है तो प्राण प्रेमिका से है.

तुममे सांसों  से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुंचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

प्रेमी के माध्यम से अभिव्यक्ति सम्पूर्ण होते ही अस्तित्व का विलोपन हो, प्रस्तुत है प्रेमिका उस चरम के लिए भी. प्रेम की उसकी तैयारी इसके आगे की भी है. 
जब देह अपनी परिणति पर होगी, प्रेमिका के वे घुंघराले बाल जब श्वेत रेशम से चमकेंगे और पसरेंगे वे प्रेमी के सीने पर तो यह प्रतीति इतनी ही गहरी होगी जितनी कि गाढ़े नीले ताल में दो श्वेत राजहंस उन्मुक्त उड़ते उभरेंगे गहरे किसी कालजयी चित्र में. 
वो ताल प्रेम से इतने पवित्र होंगे, इतने उदात्त होंगे कि उनका अमृत किसी संकीर्णता में ना आकर प्रेम के विराटपन में बहेगा. ताल का अमृत बंटता रहे सो वे श्वेत राजहंस वियोगधर्म की मर्यादा भी निभाएंगे.

मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा - तुम्हारा वियोग हैं

तो जैसे तीन प्रहर की तैयारियों के बाद ओस वाली जमीन पर हरसिंगार के फूल बिछकर उषा का स्वागत करते हैं, यह वियोग परस्पर प्रेम का सर्वोत्कृष्ट उदात्त स्वरूप स्थापित करेगा. हाँ इस वियोग में भी मै, हे मेरे मोरपंख अवश्य तुम्हें टटोलती रहूंगी. 

कविता कैसी रही, इसकी उपलब्धि क्या रही, कवयित्री की भाव-भूमि क्या थी, इस सबका उत्तर कुछ यों क्यूँ ना दिया जाय कि- इस कविता ने अंततः हिंदी साहित्य की महान कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘अधिकार’ की स्मृति पुनः करा दी जिसकी आख़िरी चार पंक्तियाँ यों हैं : 

“क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!”


(डॉ. श्रीश)


Thursday, January 12, 2017

#10# साप्ताहिक चयन:ब्रह्माण्ड एक खेल का मैदान/ 'मुकेश चन्द्र पाण्डेय'

Mukesh Ji
उत्तराखंड से हैं, मुकेश चन्द्र पाण्डेय जी. दिल्ली के दिनों के बाद फिलहाल मायानगरी मुंबई में निवास. अपने ब्लॉग राइजिंग सन में अपने बारे में लिखते हुए मुकेश जी लिखते हैं-"वर्ड्स आर माय क्लोज वन" और ये दीवानगी पुख्ता होती है यों कि सम्प्रति आप फिल्मों और धारावाहिकों में स्क्रिप्ट राइटिंग करते हैं. एक संयोग ही है कि आपकी चयनित कविता पर टिप्पणी कर रहे हैं विनय मिश्र 'विनम्र' जी एक बेजोड़ कवि होने के साथ ही साथ, एक अरसे से फिल्म-धारावाहिक निर्देशन कर रहे हैं और फिल्म निर्माण के तकरीबन हर पहलू से जुड़े हुए हैं. यकीनन यह साहचर्य रुचिकर है. (डॉ. श्रीश )

"ब्रह्माण्ड-एक खेल का मैदान"

ये अनंत ब्रह्माण्ड दरअसल एक खुला खेल का मैदान है
और वह खिलौने से वंचित खिझाया हुआ एक नन्हा बच्चा।
उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं
जिनसे निरंतर रिसती है वेदना
इस तरह एक तेज़ बहाव नदी बहा ले जाती है सब कुछ
और सत्तर फीसदी की सतह पर तैरते हैं
अपेक्षाओं के उजड़े कसबे, गावँ व शहर...
उसके कानों में सुनाई पड़ती है
कई कल्पों के विलापों की कोलाहल
जबकि उसका मुख एक सुरंग द्वार है
जिसके ज़रिये शब्दों का एक जत्था कतार में
रेंगता हुआ उसके शिथिल हृदय से उपजता है
और सांसों के साथ ही फ़ैल जाता है पूरे भूगोल पर.
इस तरह ओज़ोन की परतें और भी मजबूती से स्थापित हैं
वायुमंडल पर...!
उसका धड़ आकाशगंगा सरीखी एक सर्पिल गैलेक्सी है
उसके प्रयास उँगलियों की थकान से चटकी उल्काएं
व विफलताएँ अंतरिक्ष पर मंडराते उपग्रह।
उसके घुटने जवाब दे गए वे ब्लैक होल हैं जिनकी गर्त में
बुरे वक़्त की सभी सदायें दफ़्न हैं...
जिस प्रकार चिड़िया गिरा देती है अपना एक पंख
उसकी पलकों से उम्मीदें टूट-टूट गिर रही हैं
उसके अधरों पर का कम्पन चुंबकीय आकर्षण की नकार है
व उसके माथे पर उभर आई हैं झुंझलाहट की कई असमायिक लकीरें
जिस प्रकार नन्हे हाथों से फिसलती है गेंद
उसकी पूरी देह अधीर है
उसके हाथों से बार-बार पृथ्वी फिसल रही है...!!
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मुकेश चंद्र पांडेय

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एक कवि हमेशा से मानवीय वेदनाओं से आहत रहा है और उन्हें व्यक्त करने हेतु शब्दों के विभिन्न संयोजनों को संवेदनाओं के साथ एक मजबूत अस्त्र बनाकर बार-बार प्रहार करता है. मन की उद्विग्नता उसके आकार और प्रकार की सीमा एवं संसाधनों का विस्तार करती है और पूरे ब्रह्मांड की वेदना उसके बनाए हुए शब्दचित्र में प्रदर्शित होने लगती है. कवि कभी पूर्णतया निराश नहीं होता, आशावादिता ही कवि की प्रतिष्ठा है और इसे बड़ी ही सूक्ष्म किन्तु सरल तरीके से कहता है-

“उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं,
जिससे निरंतर रिसती है वेदना”

सहज, सरल और एकांत कवि की दृष्टि संसार के समग्र मानवीयकरण उद्देश्यों को देख रही है. कवि मौन नहीं है, निरंतर प्रयासरत है. धैर्य की सीमा को अनंत में स्थापित कर प्रतिपल जूझ रहा है. वह नितांत आहत होते हुए भी निरंतर गतिमान है. प्रज्ज्वलित हैं उसके अन्तःस्थल की अग्नि जिसमे वह स्वयं की संविदा बनाने हेतु आतुर है-
“उसके कानों में ----
इस तरह ओजोन की परतें ....वायुमंडल पर”

समदर्शिता कविता का मूल स्वाभाव है, जिसे कवि ने प्रतिपल संबोधित किया है तथा स्वनिर्देशित होते हुए प्रयासों के थकान को उल्काओं में परिवर्तित कर देता है. कहीं-कहीं कवि ऊब जाता है, घुटन महसूस करता है परन्तु उसपर भी निराशा उसे लेशमात्र भी छूने नहीं पाती. कवि स्वयं की व्यवस्था है और कविता ही उसकी व्यवस्थापक है. कवि स्वयंभू होते हुए भी कविता की स्वायत्तता के साथ अपने अधिकारों की परिधि में प्रचुरता का पोषक बना रहता है. इस समूचे ब्रह्माण्ड की नाटकीयता को ध्वस्त कर देता है. उद्विग्न है परन्तु शांत है. आतुर है, व्याकुलता स्वाभाविक है, अधीर होते हुए भी प्रयासरत है, यही उसकी व्यवस्था है और नियति भी, तभी तो-

“उसकी माथे पर उभर आयी है झुंझलाहट की असामयिक लकीरें”

इसप्रकार कवि, समय, सत्ता, प्रेम, उन्माद इन सभी कोलाहलों के निकट और संलिप्त होते हुए भी सबसे दूर है और ब्रह्माण्ड का कवि बनकर देशीय प्रदेशीय सीमाओं से उठकर समूचे पृथ्वी को बचने की कोशिश करता है. कविता में कवि ने नए प्रतिमानों का बखूबी प्रयोग करते हुए बहुत ही अच्छे तरीके से अपने कहन को गढ़ा है. 
(विनय मिश्र 'विनम्र')
Vinay Mishra Ji