नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, February 9, 2017

#14# साप्ताहिक चयन: 'सिगरेट का फिल्टर '/ 'देवेश तनय'

देवेश तनय 
अब तो 'आम आदमी ' भी राजनीतिक शब्दावली है; पर गण का हर जन जिस लोकतंत्र के नाम पर वोट करने जाता है, सियासत उसे बदले में अक्सर कुछ जुमले और कुछ महीनों का इंटरटेनमेंट दे देती है। केवल एक कवि ही है, जो 'पोलिटिकली करेक्ट ' होने के खौफ से ऊपर उठ सच की स्याही जमा ही देता है। आज की चयनित कविता का शीर्षक है-'सिगरेट का फिल्टर ', जिसे लिखा है युवा कवि देवेश तनय जी ने। आई.आई.टी. बॉम्बे के छात्र देवेश जी ने जीवन का विज्ञान भी करीने से समझा है, जो उनकी कविताओं में उन्मुक्त उमड़ता है। इसपर डॉ. हरिओम त्रिपाठी जी की प्रतिक्रिया द्रष्टव्य है। (डॉ. श्रीश )


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"सिगरेट का फ़िल्टर"

साभार: गूगल इमेज 

जब शहर के लोग
विल्स ,इन्सिग्निया जैसी
ब्रांडेड सिगरेट का
झन्नाटेदार तम्बाकू फूँक देते हैं
और फ़िल्टर को
अपने जूतों के तल्लों से पीस देते है
और उसकी चिंगारी बुझा देते हैं ,
तब मैं
अँधेरी रात में
तमाम कुचले हुए फिल्टरों को
अपनी बिल्कुल साफ़ जेब में भर लाता हूँ
और कविताएँ बनाता हूँ
जिनका धुँआ
सिर्फ़ सकरे मुँह से नहीं
पतले कानों और मोटी आँखों से भी
बदन में घुसता है
और झनझना देता है
पता है दोस्तों !
जिसे सिगरेट की डिक्शनरी में
फ़िल्टर कहते हैं
उसे लोकतंत्र भाषा में
आम आदमी कहते है।  
-देवेश तनय

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आम आदमी को कुछ भी कह लीजिये- सर्वहारा, बुर्जुआ, मध्यवर्ग, निम्नवर्ग, लघुमानव और भी पता नहीं क्या क्या, लेकिन इस से उसकी ज़िन्दगी में कोई फर्क नहीं पड़ता न ही किसी को कोई बेचैनी होती है । अख़बार की सुर्खियों में भी यह बेचैनी या तो आती नहीं और आती भी है तो बड़े चटपटे ढंग से । प्रस्तुत कविता इसी बेचैनी की पूर्वपीठिका की तरह शुरू होती है ।

कविता की शुरुआत में ही बाजार का प्रभुत्व दिखाई दे जाता है । आखिर हमारे युग की संस्कृति जिस चमकीले गोटे से सजी संवरी दिखाई दे जाती है वह आखिर ब्रांड की ही महिमा है और यह ब्रांड  बाजार की नाभि से निकले कमल पर विराज कर एक ऐसी आभासी दुनिया सृजित करता जा रहा है जहां आपके विचार और सपने तक बिकाऊ हैं और ऑन सेल हैं । अब सिर्फ आप हैं और सिर्फ आप हैं और आप पर सिर्फ आपका ही और आपके सुखों का बोझ है । मामला 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत' से आगे निकल चुका है । इसीलिए महँगी सिगरेट पीकर फेंक देना मेट्रोपोलिस(महानगर)  में शायद कोई घटना न हो लेकिन यह सिगरेट अपने आप में मेहनतकशों की लंबी कहानी को जज्ब किये हुए है और उस मेहनतकश की तरह न जाने ऐसे कितनो की ही रोजमर्रा की थका देने वाली दिनचर्या का रोजनामचा ना जाने कितने ही सिगरेट के डिब्बों में बंद पड़ा है । अगर गौर करें तो हम में से हर कोई जिसके पास या तो प्राधिकार या तो उसे खरीदने की क्षमता नहीं है, एक अनजानी आग में जल रहा है जैसी की वह सिगरेट जलती है । इस जलने की पूरी प्रक्रिया में उसे यह अंदाजा ही नहीं रहता की धीरे धीरे उसके अंदर की आग धुंआ बनकर किसी और के अहम् को तुष्ट कर रही है । यह जलना कुछ विशेष लोगो के लिए मनोरंजन है । जैसे ही वह आदमी दुनियादारी के बोझ तले अपनी प्रज्ञा, अपनी चेतना, अपने अस्तित्व का एहसास, अपने अंदर का वह सबकुछ जो उसके ज़िंदा होने का प्रमाण है, दफ़न कर देता है उसकी हालत उस सिगरेट के फ़िल्टर की तरह हो जाती है जो तंबाकू के ख़त्म होने के बाद निष्प्रयोज्य हो जाता है । उसे फिर फेंक दिया जाता और कुचल दिया जाता है ।

कवि एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अपनी चेतना नहीं खोयी है । जो बाजार के आगेनहीं झुका है, उसके लिए ये फेकें और कुचले हुए फ़िल्टर कुछ और नहीं बल्कि इन्ही आम लोगो की वह देह है जो प्रभुतासम्पन्न लोगो के लिए, सत्ता के दलालों के लिए, पूंजीपतियों के लिए बेजान है, बेकाम का है । लेकिन यह कवि के लिए बेकार नहीं है । अब भी उसे उन फेके हुए और कुचले हुए बेजान और बेकार फिल्टरों में इतना धुंआ मिल ही जाता है जो हमारे दिमाग को हमारी चेतना को झिंझोड़ सके । ये धुंआ और कुछ नहीं बल्कि आम आदमी के सपनो की छोटी छोटी अधूरी कहानियां हैं जिनसे कवी महाकाव्य लिखना चाहता है । इस लोकतंत्र में वह व्यक्ति भले ही एक बेजान वोट का बटन बन बन के रह गया हो लेकिन उसकी कहानियों में कवि को महाकाव्य बनने की क्षमता दिखाई देती है ।
पूरी कविता पढ़ने के दौरान कई बार लगा मानो कहीं दूर ओट से झांकते हुए मुक्तिबोध खड़े हैं । उन्हें बारबार झांकते हुए महसूस किया है । साथ ही इस कविता में कई संस्तर हैं जिनपर निश्चित ही विभिन्न रीतियों से विमर्श संभव है। 

डॉ. हरिओम त्रिपाठी 

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