नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, March 2, 2017

#17# साप्ताहिक चयन: 'ज़िंदगानी '/ 'कमलकांत '

कमल कान्त 
ज़िंदगी एक बहती नदी हो और उसके साथ सहज बहने का बालसुलभ मन हो, तब तो इसकी इक इक लहर की रवानगी रूह में उतर जाये और हर पल सुकूँ के हों, पर सहजता, इतनी भी सहज नहीं। ज़िन्दगी को समझ ही लेने की हवस उस नदी की हर लहर को मुट्ठी में लेने की जद्दोजहद जैसी होती जाती है। आज की चयनित साप्ताहिक कविता प्रविष्टि 'ज़िंदगानी ', एक संभावनाशील उभरते युवा कवि कमलकांत जी की रचना है। आसान बनाने की कोशिश में ज़िंदगी और भी कठिन होती चली जाती है। ऐसे में स्मृतियाँ सिखावन भी देती हैं। कविता पर टिप्पणी कर रहें हैं सुशील कृष्णेत जी। सुशील जी, ज़िंदगी की ज़द्दोज़हद को उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी रहते हुए बेहद करीब से निरख रहे हैं, साहित्य में दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधरत भी हैं और कैमरा भी इनका हर ईशारा समझता है।  (डॉ. श्रीश)



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जिंदगानी नामक इस किशोरवय कविता को पढने के बाद लगा कि एक आदमी अपने काम और जिम्मेदारियों से अस्त-पस्त हो कर एकालाप कर रहा है ड्राईंग रूम में बैठकर जिंदगी के व्यापार में अपनी उपलब्धियों के फायदे को गिन रहा है और उसके साथ ही साथ जो कुछ छूट गया उसे घाटा समझ कर गिन भी रहा है फ्लैशबैक में उसके जेहन में स्कूल के दिन चल रहें हैं वह अपने भारी स्कूल के बस्ते को याद कर रहा है जिसकी उपरी पॉकेट में वह रबर रखता था तब जिंदगी के सफ़ेद पन्नों पर काली पेंसिल ही चला करती थी अगर कुछ गलत हो जाता तो उसे मिटा कर सही करने का मौका मिल जाता था पर अब कहाँ? अब इस उम्र में आकर जो ड्राईंग बन गयी वह अब गलत लगने लगी है मन चाहता है कि काश वह पुरानी ड्राईंग की तरह रबर से मिटा कर सही की जा सकती सफ़ेद सफहों पर काले असआर. गलत को सही करने का मौका भी था और या तो सब काला था या फिर सफ़ेद . कई रंगों का उलझाव नहीं था बिल्कुल ब्लैक एंड व्हाईट पासपोर्ट फोटो की तरह. अब तो लगता है उस ब्लैक एंड व्हाईट ड्राईंग को छोड़ ड्राईंग रूम की दीवारों में इतने रंग नाहक ही भर दिये थोड़ी सी जिंदगी को थोड़ा-थोड़ा हर रंग से रंगने की कोशिश में रंगों का उलझाव बन लिया आगे कवि मन पहाड़े को याद करते हुए कहता है कि उस वक़्त की जिंदगी तो बस पहाड़े की ही तरह तो थी हाँ बस उन्नीस का ही भारी थी अब जब उन्नीस की उम्र तक पहुंचे हैं तो जिंदगी गणित की इक्वेशन हो गयी है घर का रास्ता घासों से घिरी एक पगडंडी थी और आजबड़ी-चौड़ी सड़कें और कारें होने के बावजूद घर लौटना मुश्किल है हमने हसरतें तो एक से एक पाल रखीं हैं, हसरतों पर कोई पाबंदी ही नहीं है लेकिन उसके मुकाबले अपनी सोच को हमने बड़ा नहीं किया वो सीमित और संकुचित ही होती जा रही है.

सुशील कृष्णेत की क्लिक:Krishnetography

संक्षेप में यह कविता एक किशोर मन का प्रौढ़ हो रहे मन से एकालाप है स्कूल के बस्ते, गणित के इक्वेशन और पहाड़ों, घर लौटने की पगडंडी के जरिये बचपन के सुहाने दिनों को याद कर यह कविता लिखी गयी है जिसका सार यही है कि जिंदगी के एक मोड़ पर बहुत कुछ हासिल करने के बावजूद सुकून बचपन के अभावों वाले दिन ही अच्छे लगते हैं हालांकि यह थोड़ा भ्रम सा उत्पन्न होता है कि महज उन्नीस की उम्र का मन जिंदगी का गुणा-भाग इतना संजीदा हो कर कैसे करता है और क्यों? एक तरफ वह महज उन्नीस का है और दूसरी तरफ इतनी कामयाबी तो हासिल ही कर चुका है कि घर के दीवारों पर कई रंग चढ़ाए जा चुके हैं . बहरहाल बचपन को याद करती एक नोस्तेल्जिक सी रचना जो स्कूली दिनों की झलकियाँ दिखला जाती है.

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