नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, March 5, 2017

काश भइया आपसे कुछ और मुलाकातें हुई होतीं...अम्बुजेश शुक्ल

रोहित पाण्डेय 
जून 2001 की तपती दोपहर का वक्त था शायद...हिन्दी विभाग की ओर से विश्वविद्यालय से निकलते वक्त अचानक गुरुदेव अनन्त जी मिल गए, उनका आशीर्वाद लेकर अभी पलटा ही था कि मेरे ठीक पीछे से औसत कद काठी के एक शख्स भी उनका पैर छूने को झुके और मेरी कोहनी से टकरा गए। थोड़ा सा गुस्सा लगा था..कि अचानक पीछे आने की क्या जरूरत थी, मगर ये महज इत्तेफाक था सो बात आई गई हो गई। कुछ महीने..गुजर गए, यूनिवर्सिटी में कक्षाएं शुरु हो गई थीं, नया माहौल था, सो घुलने मिलने की कोशिश भी हो रही थी।

एक दिन दीक्षा भवन की ओर कुछ हलचल दिखी (वैसे भी उन दिनों दीक्षा भवन की ओर जाने के बहाने तलाशे जाते थे) सो कुछ मित्रों के साथ मैं भी उस ओर बढ़ चला। युवा संसद चल रही थी वहां...अरे हां एक बात भूल गया उन दिनों एकाध डिबेट की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया था और हर जगह निराश हुआ था। ऐसे में युवा संसद मेरे लिए निहायत ही अनोखी चीज़ थी...सच कहूं तो शुरु शुरु में लगा कि किसी नाटक का मंचन हो रहा है, भीड़ काफी थी लेकिन एक कोना मिल गया बैठने के लिए। सामने चल रही युवा संसद (जो असल में मेरे लिए एक नाटक के मंचन जैसा था) में एक शख्स पर निगाह टिकी। जो बेहद प्रभावशाली अंदाज में अपनी बात रखा रहा था। मैने गौर से देखा याद आया कहीं देखा है इस बंदे को...सोचता रहा सोचता रहा और उस शख्स का पूरी बात सुनकर बाहर आया। बाहर आने के बाद मुझे याद आया हिन्दी विभाग का कुछ क्षण के लिए घटित हुआ वाकया, जहां मुझे इन भाई साहब पर सच में बड़ी जोर का गुस्सा आया था। मगर युवा संसद के बाद तो यूं लगा जैसे किसी ने मुझे हिप्नोटाइज़ कर दिया। कैम्पस में चूंकि अब तक कोई ऐसा नहीं मिला था जिससे मैं यहां होने वाली डिबेट के बारे में उसकी तैयारी को लेकर कुछ भी चर्चा कर पाऊं। मुझे लगा यार बंदा तो दमदार है एक बार मिलना जरूर चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं,

खैर उसके बाद बहुत कुछ हुआ। एक दो बार दुआ बंदगी हुई। फिर मौका आया छात्रसंघ चुनाव का, उस वक्त तक विश्वविद्यालय के बारे में बहुत कुछ जान समझ चुका था लेकिन लफंगई में रुचि कुछ ज्यादा हो चुकी थी। राधेमोहन मिश्र युग के बाद पहली बार चुनाव हो रहा था सो उत्साह भी था अलग तरह का...श्रीकांत मिश्रा के चुनाव कार्यालय कचहरी बस स्टेशन के पास बना था। उस दिन कार्यालय पर मेरे अलावा एक दो लोग और थे। बाकी सब कहीं बाहर निकले थे, चूंकि रात में मुझे पोस्टर लगाने निकलना था सो मैं अब सोने के मूड में था...तभी दरवाजे पर दस्तक हुई...थोड़ा उनींदी हालत में बेहद अनमने ढंग से दरवाजा खोला था। सामने वही युवा संसद वाले भाई साहब खड़े थे, श्रीकांत जी के बारे में पूछा और वापस जाने को हुए तभी मैंने मौके का फायदा उठाया और कहा भइया यूनिवर्सिटी में इतना डिबेट वगैरह होता है, हर जगह मेरा पत्ता कट जाता है, मुझे समझ में ही नहीं आता कि यहां कैसे बोला जाए, फिर मैने उन्हें युवा संसद में सुनने की दुहाई थी...लब्बोलुआब बस इतना था कि उनसे किसी भी तरह परिचय करना था। खैर उन्होंने मुझसे करीब 15-20 मिनट बात की...मुझे डिबेट और इस तरह की प्रतियोगिताओं में कैसे तैयारी करें, कहां से कंटेट जुटाएं जैसी तमाम जानकारियां दीं, बात करते करते हम लोग कार्यालय की छत तक गए, और भी बहुत बातें हुईं स्मरण नहीं हो रहा।

ये रोहित पांडेय थे, जिनसे मेरा ठीक से परिचय तब हुआ जब वो हिन्दुस्तान में बतौर संवाददाता काम कर रहे थे और चूंकि अपने प्रत्याशी की तमाम प्रेस रिलीज वगैरह मैं लिखता रहता था सो उनसे लगातार मुलाकातें होती रहीं। फिर गोरखपुर छूटा और रोटी की तलाश दिल्ली ले आई। और रोहित भइया से बातचीत का सिलसिला फोन पर शुरु हुआ। शायद गोरखपुर में उतनी बातें नहीं होती थीं जितनी दिल्ली रहते हुए उनसे हुईं। नौकरी शुरु करते वक्त एक लम्बी बात हुई थी। संभवतः 10 मिनट के करीब। ना जाने क्यों लगा कि वो थोड़े निराश से हैं। मैंने पूछने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने बात टाल दी। आखिरी बार उनसे गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर मुलाकात हुई थी जब मैं दिल्ली से लौट रहा था। सामने पड़ते ही मैंने उनका पैर छूने की कोशिश की तो पीछे हट गए, हंसते हुए बोले अरे शुक्ला जी अब आप भी पत्रकार हो गए हैं यूनिवर्सिटी वाला काम बंद कर दीजिए। बात हंसी मज़ाक में रह गई।
ठीक से तीन मुलाकातें और एक मुलाकात में लम्बी बात, एक बार फोन पर लम्बी बात...यानी दो लम्बी बातें...बस इतना ही रिश्ता रह पाया रोहित भइया से। उसके बाद कुछ मौका नहीं बन पाया, अचानक एक दिन एक वेबसाइट भड़ास करके है, उस पर रोहित भइया के जाने की खबर पढ़ी तो स्तब्ध रह गया। मेरे जीवन के दो अहम पड़ाव, डिबेट की शुरुआत और नौकरी की शुरुआत के मेंटर रहे रोहित भइया के यूं चले जाने को मन मानने को तैयार नहीं था। लेकिन बात इस निर्मम पत्रकारिता वाली नौकरी की थी सो गोरखपुर तो छोड़िए राममनोहर लोहिया अस्पताल भी नहीं जा सका...अब भी कभी कभार जब अकेले होने पर जिन्दगी फ्लैशबैक में जाती है तो हूक सी उठती है...
काश भइया आपसे कुछ और मुलाकातें हुई होतीं।
























(नेटवर्क १८ में वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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