नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, April 22, 2017

#५# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा


मन्नत अरोड़ा 
यूँ तो अभी दो साल ही पूरे होने को थे शादी के बाद।इतना थक गयी थी कि आगे और जिंदगी भी यहीं काटनी है।बस यही सोच के अब जिंदगी से कोई उम्मीद बची ही नहीं थी। यह दो साल भी पता नहीं कैसे बीते थे। कुछ दिन तो भूलाये से नहीं भूलते।

मेरी शादी के कुछ दिन बाद ही तो था करवा चौथ।
पहली बार व्रत रखा था।माहौल और मौसम कुछ अजीब सा था तो चाँद निकल ही नहीं रहा था।बादल थे।
घर और बाहर सभी औरतें इंतज़ार में कि व्रत कैसे खोलें।सभी घरों की छतों पे कि तभी एकाएक चाँद निकला तो सभी भागी अपना-2 पूजा का सामान लेने।इतने में चाँद फिर से बादलों के पीछे था। अब सभी एक-दुसरे का मुंह देख रही थी कि क्या किया जाए।इतने में किसी ने आकर कहा कि मंदिर की पंडिताइन से पूछा है कि ऐसे चाँद तो निकल ही आया है भले ही बादलों के पीछे है तो भगवान् शिव के सिर का चाँद देखो मूर्ती में और खाना खा लो।

सब के साथ मैंने भी ऐसा ही किया।मेरे पति अभी तक घर नहीं आये थे।तबियत मेरी व्रत के कारण कुछ खराब थी।सिर मेरा बुरी तरह से दर्द कर रहा था।मेरे से कुछ खाया भी नहीं जा रहा था।किसी तरह से कुछ थोड़ा खाना और दवाई खा कर मैं सोने चली गयी। जैसे ही पति आए तो बस यही बात लेके बैठ गए कि आखिर चाँद नहीं निकला था तो खाना क्यों खा लिया।अपशगुन कर दिया।भले ही चाँद सारी रात न निकले,खाना चाँद देख के ही खाना चाहिए।पति से प्यार ही नहीं है।बस मरते हुए देखना चाहती है। मैं कहा भी कि सब कह रहे थे तो मना भी कैसे करती।


चलो वो बात खत्म ही हुई कि लो जी अब तबियत खराब है।
करवा-चौथ तो पति की रात होती है।पत्नी सो कैसे जाए दवाई खा कर।बस चीखे जा रहा था और दीवार पे अपना सिर पटक रहा था।मुझे यही समझ में नहीं आ रहा था कि मेरे से क्या गलती हो गयी शादी कर के।आखिर क्यों की। दिल में आया कि सब छोड़ के चली जाऊं। पर कहाँ। दिन ससुराल के और रातें पति की।अपना कुछ रहता ही नहीं।एक किराए की जिंदगी जीते चली जानी है। बातों ही बातों में यह तो सास को जता ही दिया था कि मैं जब तक बेटी कुछ बड़ी नहीं हो जाती और बच्चे की नहीं सोच सकती।वैसे भी घर में इतना काम क्या कम था–मेरी बेटी,जेठानी की बेटी और अब बेटा भी।सारे घर का,आने-जाने वालों और कुछ फैक्ट्री के नौकरों का खाना तक घर में बनता था।


ऊपर से साफ़-सफाई और न जाने क्या-क्या।इस पे एक और बच्चा;मैं सोच भी कैसे लेती।


घर में दो पार्टियां बनी हुई थी।एक सास की और दूसरी जेठानी की।मैं जिस की भी पैरवी करती दूसरी मेरे ख़िलाफ़ तो मेरा हाल आम जनता जैसा था कि वोट किसको दे। अब पति माँ के साथ था तो ज़ाहिर सी बात है उसी को वोट करना था। इस पे जेठानी-जेठ और सास की 2 ननदें(बुआ-सासें) यानी पूरा head quarter ही नाराज़ रहता था। मेरी ननदों का वोट कभी इधर तो कभी उधर।Head quarter की नाराज़गी किसी को मंज़ूर नहीं थी। आखिर कुछ झगड़ों के चलते दोनों पार्टी अलग हो ही गयी।झगड़े भी कुछ छोटे नहीं हुए थे।

मेरी दोनों ननद अब माँ की पार्टी में थी।


अलग हो जाने से एक तो बिज़नस और दूसरा बेटा न होने का दुःख में माँ-बेटा दुखी रहते।
अब तो मैंने मान ही लिया था कि अगर बेटा हो भी जाए तो भी इन माँ-बेटा को दुखी होने का कोई और कारण मिल जाएगा।इन्होंने रहना रोते ही है।कोई कारण न मिलने पे ये खुद ही बना लेते हैं।
मेरे सिर दर्द के dose बढ़ने लग गए थे।

बहनें भी साथ देने के एवज में माँ से यदा-कदा कुछ न कुछ डिमांड करती रहती थी।चाहे सबको प्रॉपर्टी का शेयर दे दिया गया था पर माँ ने जो कुछ अपने लिए रखा था कि वक़्त आने पे दोहते-दोहतियों और पोते-पोतियों की शादी पे देंगी।बस वो भी अभी मिल जाए इस पे होड़ लगी थी।न मिलने पे झगड़े।
अब इनके आपसी मामलों का मैं क्या करती।बेटियां घर आ जाती थी तो सास उनके जाने के बाद मुझे रो-रो कर सब कहती।नहीं आती थी तो खुद ही फ़ोन कर-कर के बुला लेती।

फिर एक दिन दोनों बुआ सास के रोड एक्सीडेंट में चल बसने की ख़बर आ गयी।

इस पे मेरे दिल के ही एक कोने ने कहा
"चलो कुछ तो "कूड़ा" कम हुआ"


अब उनकी कुर्सी मेरी दोनों ननदें संभालने का सोचने लगी।

(क्रमशः )



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