नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, May 25, 2017

#29# साप्ताहिक चयन: 'कवितायें' / सौरभ सिंह 'शेखर '


सौरभ सिंह 'शेखर '
इस बार का साप्ताहिक चयन थोड़ी देर में आ पाया है l इसका कारण यह कत्तई नहीं है कि प्रक्रियाओं में विलम्ब था कोई l इसका कारण एक झिझक थी l कवि की प्रेषित सभी कविताओं को नवोत्पल पर लाने का लोभ था, पर हमारा अब तक का 'एक कविता का अनुशासन'  हमें रोक रहा था l अंततः सभी कवितायेँ यहाँ रखी जा रही हैं l 

प्रखर कवि की प्रखरता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है l कविवर सौरभ सिंह 'शेखर ' की कवितायेँ इस बार नवोत्पल के साप्ताहिक चयन में सुशोभित हैं l 

आपकी कविताओं पर अपनी गंभीर टिप्पणी कर रहे हैं आदरणीय डॉ.  विवेक शुक्ल जी ! सम्प्रति आप डेनमार्क के आरहस यूनिवर्सिटी में अध्यापन कर रहे हैं l 

 श्रीश जी ने इस काव्य कर्म पर जो विस्तृत  टिप्पणी दी है , वह भी प्रस्तुति के साथ संलग्न है। 
आइये दोहरा आनंद लें ।  

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आकांक्षाएं
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यह हवा का योनि चित्र-
आसमान के सहवास की आस बाँधे
उस रेगिस्तान मेँ
क्योँ गिराये जा रहा है-
अपने वीर्य
क्या यह गर्भ उसके स्तनोँ के
छलकते दूध की लाज मेँ
जीत पायेगा यह अखिल अगियाया
स्वार्थ की लौ पर झुलसता विश्व सारा ।

पूरब को ललचाता पश्चिम का बंजर
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उस रेगिस्तान तले-
पहले एक नदी और
उसके तीरे एक मंदिर हुआ करता था ,
जब वहाँ आबादी हुआ करती थी -
बहुत ज्यादा दिन नहीँ बस
थोड़े ही दिनोँ पहले
बच्चे दौड़ते थे -
लड़कियाँ खिलखिलाती थीँ
नदी मेँ नहाती थीँ , इस तरह
उनके अंगो को स्पर्श करता पानी
चला जाता था समन्दर की प्यास पीने और
कुछ बड़े गृहस्थी के लिये कर रहे होते थे-
हाड़-तोड़ मेहनत, मुस्कुरा कर
गुड़गुड़ाते हुए हुक्के बूढ़े खाँसते बतियाते-
शाम के उदास आँचल मेँ खेल रहे होते थे -
धूलखण्डी
कहते हैँ कि-
फिर पश्चिम की जानिब
दिखा चमचमाता कुछ आँखोँ को चुधियाने वाला तारे जैसा
और फिर उसे छूने की होड़ मेँ-
यह बंजर और बँजर पसारता गया ।

3
सोचता हूँ -
क्या रह गया है शेष
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बहुत सोचा मैँने
कि अब और अभी तक क्या बचा रह गया -
इस जिन्दगी की भीड़ की भिनभिनाहट मेँ ,
कुछ अधमरी दिखावटी संवेदना -अपनी अपनी भूख-गरीबी औ
इंसानी चोले से भागती इंसानियत पाकर -मैँ भी
न हैरान हुआ ना ही हुआ मुझे दुःख
चूँकि मैँ यह नहीँ जानता था
कि मैँ भी इसी भीड़ का हिस्सा हूँ

4
एक रात फिर
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एक रात फिर तुम्हारे साथ-
सो कर , मैँ
तुम्हारी चीख के कानोँ मेँ पिघलाकर
अँधेरे के शीशे डाले जा रहा था- और
तुम
मुस्कुरा रही थी- मेरा
मुस्कुराना देखकर

5
मैँ स्वयं का पर्यायवाची-आत्महंता
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तुम नदी
और मैँ -नदी का निम्न तल हूँ ,
तुम्हारे जल के लिये कि मैँ , क्या हूँ ? शायद कुछ नहीँ या शायद
तुम्हारी चाक की मिट्टी या तुम्हारी
मुस्कुराहट का कोई एक कारण-
एक अद्भुत गर्भ
जिसके जन्म के अभिशाप मेँ कोई
जल रही है जीवन प्रसूता -
कि भोर जो तुम ,
जिसकी पूरवर्ती रात्रि के अनगिनत कि जिनपे
लिख हूँ मैँ स्वयं का पर्यायवाची -आत्महंता
या कि , मैँ क्या हूँ ? सच कहो प्रिय अब तुम और तुम्हारे अस्पष्ट उत्तर मेँ मैँ ,
भटक कर चन्द्रमा पर टकटकी लगाये
अँधेरे पढ़ रहा हूँ - यह कौन और किस कल्पना की घड़ी में, अकेले ही सपने गढ़ रहा हूँ ?


6
एक झूठ जो सच हुआ करता है 
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हर बार सच
स्वीकार नहीँ होता जल्दी और
झूठ फैल जाता है क्षण मेँ-अतः
कुछ तो है जो सच को कमजोर और
झूठ को मजबूत बनाता है- बस कुछ क्षणोँ के ही लिये
इसलिये आइये हम भी और आप भी
एक झूठ ,
फुसफुसाते हैँ - समन्दर की मछली के कान मेँ
कल तक की भोर तक को - बिल्कुल
सच की तरह
कि आने वाली सुबह मेँ
उसका प्रेमी मछुआरा -उसे मिल जायेगा
जिससे मिलना है एक दिन , यह जानते हुये
वह उससे डर कर
वह उसे भूली रहती है |

7
कैसे कोई भोग सकता है-तुम्हेँ
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एक बदहवाश रात
जब धंस रही हो दिन के दलदल मेँ-
मैँ सुन रहा होता हूँ तब एक संगीत
जिसमेँ तुम छटपटा रही होती हो , मेरा
छटपटाना देखकर और
उस रेगिस्तान से फिर
एक सदा गूँज उठती है - हमारे प्रेम की खातिर
तुम्हारी देह मेँ
जिसे भोग रही होती है कोई दूसरी देह-
किसी रीति और रिश्ते के बल पे
तुम्हारे प्रतिकार को इनकार कर
इसलिये मैँ मर रहा हूँ अनेकोँ बार
जिन्दगी मेँ ,
कि जब तुम समर्पित होकर भी
घुट और सिसक रही होती हो
अपने शोषित समर्पण पर कि
कैसे कोई भोग सकता है -तुम्हेँ
बस तुम्हारे अंगो के सहारे तुम्हारी आत्मा के विद्रोह मेँ ,और
तब की जब तुम्हारे खुले ऊरोजोँ से कोई अनधिकार चेष्टा
तुम्हारे नितंबोँ को टटोलती है -
तब सुन रहा होता हूँ-मैँ
एक संगीत ,
जिसमेँ तुम छटपटाती हो और
मैँ मर रहा होता हूँ ।

8
स्वप्न बस स्वप्न नहीँ होते
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स्वप्न बस स्वप्न नहीँ होते -
जैसा की तुम कह रही हो , क्योँकि
हवा के हजार स्पर्शोँ मेँ एक स्पर्श
कि जिस्म सिहर जाता है-
जैसे किसी खास स्पर्श से
तो प्रिये स्वप्न ,
बस स्वप्न नहीँ होते और तुम तो
अच्छी तरह जानती हो कि
हर तुम के मायने तुम नहीँ होते ,
इसलिये स्वप्न एक मौलिक अनुभव के-
पुर्व और परवर्ती , चित्रपट के चित्र हैँ
या कि कुछ इस तरह की जैसे
वक्त की बेरहम धरती मेँ जिँदगी की पौध के
पहले अंकुरण हैँ
या फिर कुछ झुठ से कुछ सच से
मिलकर बने चुटकले ,
तुम्हारी कल्पना की देह मेँ तुम्हारी गुदगुदी होते हैँ -
इसलिये मैँ , चिल्लाकर के कहता हूँ-
क्रान्ति की हर क्रिया से पहले स्वप्न
जीवन की हर क्रिया से पहले स्वप्न , तथा
प्रेम की पीड़ा के असल संवाहक स्वप्न होते हैँ -
इसलिये स्वप्न बस स्वप्न नहीँ होते


सौरभ सिंह (शेखर)
(एक समय आप अरुणाभ निलय के नाम से भी लिखते थे ) 

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सौरभ (अरुणाभ) की कविताओं का सबसे सघन  स्वर है प्रेम | किन्तु इस प्रेम की सान्द्र  एन्द्रिकता में प्रेमी का उच्छावास अपने समय के सामजिक सत्यों से भागता नहीं बल्कि उन्हें प्रश्नबिद्ध करता है कैसे कोई भोग सकता है तुम्हेएक प्रेमी का  अकुलाहट भर स्वर ही नहीं है बल्कि उसके लिए बड़ा प्रश्न ये है

कि जब तुम समर्पित होकर भी
घुट और सिसक रही होती हो
अपने शोषित समर्पण पर कि
कैसे कोई भोग सकता है -तुम्हेँ
बस तुम्हारे अंगो के सहारे तुम्हारी आत्मा के विद्रोह मेँ” (कैसे कोई भोग सकता है तुम्हे)

समपर्ण के शोषण में बदल जाने की उस संस्कृति को कवि रेखांकित करता है, प्रेम की यह सामजिकता सौरभ (अरुणाभ)  का हस्ताक्षर है और अच्छी बात यह है की वो क्रांति की मुलम्मा उतरी शब्दवाली का सहारा नहीं लेते बल्कि प्रेमी की उस अकुलाहट को स्वर बनाते हैं का जिसमें  सामाजिकता एक प्रतिध्वनि की तरह आती है और समकालीनता के गुम्बदों से टकराती है| सौरभ (अरुणाभ)  की कविता भावुकता तो जगाती है पर रोमानियत के चक्र में नहीं फंसती | “एक झूठ जो सच हुआ करता हैकविता में वो सच  जो मछली के कानों में फुसफुसाया जाता है वो झूठ हैऔर कवि इसे स्वीकारते हुए पाठकों को इसका साक्षी बनाते हुए कहता है ,

इसलिए आइये हम भी और आप भी
एक झूठ
फुसफुसाते है

और जब आप तकरीबन आश्वस्त हो चुके होते हैं कि उसका  प्रेमी मछुआरा उसे मिल जाएगा जिससे मिलना  है एक दिनसौरभ (अरुणाभ) अचानक वो परदे खींच देते है जिसके उस पार एक दूसरा सच आपको घूर  रहा होता है

ये जानते हुए
वह उससे डर कर उसे भूली रहती है|”

सौरभ (अरुणाभ) का शिल्प एकबारगी वायवीय लग सकता है पर यहीं उनकी कविता आपसे थोडा ठहर कर देखने की मांग करती है| उनकी कविता आकांक्षाएंइन्ही भ्रमों को तोड़ती है और भाषिक स्तर पर यह अखिल अगियाया स्वार्थ की लौ पर झुलसता विश्व सारापंक्ति यह भरोसा दिलाती है की उनकी भाषा के प्रयोग सायास है और अपनी इयत्ता से अलोकित भी | सौरभ (अरुणाभ)  को पढ़ते हुए शमशेर याद आते हैं जिनके यहाँ एन्द्रिकता अपने भरे पूरे रूप में थी वही सौरभ (अरुणाभ)  के यहाँ भी और उसे लेकर वो किसी नैतिक संशय में नहीं है , अपनी कविता के प्रति उनका यह विश्वास  बार बार झलकता है खासतौर से उनकी कविता एक रात फिर में | उनकी कविताओं पूरब को ललचाता पश्चिम का बंजरऔर सोचता हूँ क्या रह गया है शेषपढ़ते हुए एकबारगी लगता है की सौरभ (अरुणाभ)  केदार नाथ सिंह के परम्परा के कवि है और मुझे व्यक्तिगत रूप से यहीं उनकी कविता से वो ताज़गी जाती जान पड़ती है खासतौर से सोचता हूँ क्या रह गया है शेष में | पर सौरभ (अरुणाभ)  का अनभुव कोष दिन ब दिन बढ़ रहा है और उनके पास जो भाषा और कथ्य की निर्भीकता है उनकी कविताओं को विशेष बनाती है| आशा है कि सौरभ (अरुणाभ)  अपनी कविताओं का वह हस्ताक्षर बनाये रखेंगे और एक कवि-विहीन और कविता-बहुल समय में कवि के रूप में याद रहेंगे |

(डॉ॰विवेक कुमार शुक्ल)
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डॉ. श्रीश 
आकांक्षाएं
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सहसा लगता है कि इस कविता में शब्दों से चमत्कार बाँधने की कोशिश है पर यह छोटी सी कविता जब अपने चरम पर पहुँचती है तो वह सवाल उठाती है, जिसकी परवाह किये बिना लोग प्रक्रियाएं दुहरा रहे और जिसका परवाह किया ही जाना चाहिए l जब 'स्व' और 'स्वार्थ ' ही महत्वपूर्ण है फिर सृजन का हेतु मुरझाना ही है l अगर सृजन हो ही तो फिर यह प्रश्न समझना पड़ेगा कि युद्ध बेहद कठिन होगा स्वार्थी माहौल के खिलाफ, लपलपाते लपटों की तरह सेल्फ सेंटर्ड लोगों के बीच l
पूरब को ललचाता पश्चिम का बंजर
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बहुत गूढ़ दृष्टि चाहिए जिसमें आत्मश्लाघा भी ना हो और अपनी इयत्ता और सांस्कृतिक चेतना का सम्यक महत्व स्थापित हो l यह दृष्टि है इस कविता के कवि में और उसकी घोषणा ध्यातव्य है कि बंजर है पश्चिम फिर भी ललचा रहा है l सो स्वयं के भीतर टटोलने की आवश्यकता है, जो प्रगति के सोपान चढ़ते जाने हैं तो l
सोचता हूँ -
क्या रह गया है शेष

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संभव है, कवि की दृष्टि कुछ और हो पर मुझे यह अर्थ रोचक लग रहा l स्वयं को समझना कठिन तो है पर हम स्वयं को काफी कुछ समझते तो रहते ही हैं l जिन्दगी के असल से जब यहाँ-वहां सामना होता है तो कई बार लगता है कि इक भीड़ का हिस्सा ही हूँ और उससे भी कई बार कट- सट जाता हूँ l
एक रात फिर
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ये रोजमर्रे का सच है पर रोज एहसास नहीं होता l हर दिन वो समझती है सारे विमर्श जब वो बरबस मुस्कुराती है बस l किसी दिन अपने अहम को एहसास होता कि अच्छा, वो ना केवल समझ रही संक्रियाएं अपितु कईयों को समानान्तर बुन भी रही l
मैँ स्वयं का पर्यायवाची-आत्महंता
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बुल्ला कि जाणा मै कौन !
बड़ी यात्रा है ये, इसके सपने हर उम्र में आते हैं, पर l इस कविता का शीर्षक ही पर्याप्त है l सब मै ही हैं अलग-अलग रूपांतरण l हाँ, मै स्वयं का पर्याय हूँ, रहा हूँ, रहूगा...! सृजन-विनाश की प्रक्रिया से पुनर्नवा होता रहता हूँ l विनाश के बीज में सृजन की प्रेरणा सम्हाले मै बना हुआ हूँ l
एक झूठ जो सच हुआ करता है 
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ये एक उम्दा विचार है l कुछ तो है झूठ में जो इसे सच की तरह ही चिरंजीवी बनाता है l झूठ की चाशनी में अक्सर सच की जलेबियाँ छान ली जाती हैं l इतिहास गत के एक बिंदु पर पश्चात मुहर लगा देता है l वर्ना कैसे पचा लेती हैं पीढियां यह व्याख्या कि समंदर की मछली को उसका प्रेमी मछुआरा मिल जायेगा l
कैसे कोई भोग सकता है-तुम्हेँ
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संघर्ष स्वयं में विरोधाभासी है l लगातार भिड़ना भी है संघर्ष और समानान्तर स्वीकारते जाना भी एक संघर्ष है जो प्रतिपल मानस में घटता जाता है l संघर्ष के भीतर के संगीत को मधुर चिरंजीवी होना ही था जबकि प्रेमी और प्रेयसी कहीं भी होकर कुछ भी खोकर स्वरित्र बनकर समनाद बुनकर अनाहत नाद की लहरियां जो बिखेर रहे हों तो l
स्वप्न बस स्वप्न नहीँ होते
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स्वप्न का साहस, लक्ष्य की ओर का पहला पूर्ण कदम है l एक पूरा स्वप्न देख पाना उतना ही दुष्कर है जितना कि पथ के शूलों के बीच धर्य बचा पाना l यह दोनों सत्य बस वह पथिक समझता है जो पथ पर होता है l ज्यादातर अनबुने ख्याल को स्वप्न समझते हैं जबकि उस ख्याल में कई उलझाव होते हैं और एक एक कर उन्हें सुलझाना होता है, फिर एक मुकम्मल स्वप्न तैयार होता है l एक मुकम्मल स्वप्न फिर दृष्टा को अक्रिय रहने ही नहीं देता l स्वप्न हौले से समझा देते हैं किसी क्षण कि यात्रा ही है समूचा सच, मंजिल तो कस्तुरी की तरह खुद में ही है l
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अद्भुत हैं कवितायेँ, प्रखर है कवि की प्रतिभा और चेतना l इन एक एक कविताओं पर एक विमर्श छेड़ा जा सकता है l संतोष है कि ये कवितायेँ नवोत्पल पर हैं ।


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