नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, June 29, 2017

#34# साप्ताहिक चयन 'छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी' / विहाग वैभव


विहाग वैभव 
सम्वेदनायें किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। यही उसके मूल्यों का निर्धारण करती हैं और यही हैं जो इंसान को इंसान बनाती हैं। पर तब क्या हो कि जब यही सम्वेदनायें ही व्यक्ति के शोषण का कारण बनने लगें, यही सम्वेदनायें ही व्यक्ति को इस्तेमाल होने पर विवश कर दें....!

बी एच यू के शोधछात्र ( जे आर एफ) 'विहाग वैभव' उन अत्यन्त प्रतिभाशाली युवा कवियों में हैं, जिनकी दृष्टि बड़ी गहरी और व्यापक है। आपकी कविता पर अपनी टिप्पणी का योग कर रहीं हैं प्रियांशु मिश्रा। मूलतः कंप्यूटर साइंस की विद्यार्थी प्रियांशु हिन्दी साहित्य से विशेष स्नेह रखती हैं। (डॉ. जयकृष्ण मिश्र 'अमन')

****************************************************************************************************

छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी __________________________

साभार: विकी हाउ
छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये भीतर से जरा और दम साधो आंखों में तनिक और नमी लाओ चेहरे पर पोत लो रोना और भी अधिक कि भुक्तभोगी जान जाय कि तुम उसके दुख में उससे अधिक दुखी हो उसकी माँ को अँकवार में भींच लो बच्चे की तरह और अपनी शर्तिया वेदना से उसे तृप्त कर दो जबतक की वह तुम्हारी धूर्त संवेदना को पहचान न ले उसके दुख में सर्वाधिक करुणा उगलो और उसका सबसे बड़ा हितकारी बनने की प्रतियोगिता में प्रथम आओ दुर्घटना की एक-एक जानकारी बहुत करीने से लो ऐसे कि जैसे तुम देवता हो और उसमें कुछ जरूरी बदलाव कर सकते हो । इन सबके बीच एक जरूरी काम यह भी करना कि वह जो भीड़ से अलग खड़ा अपनी ही खामोशी में विलखता जा रहा है उसे परिदृश्य से बाहर ही धकेले रखना कहीं वह फूट पड़ा तो तुम्हारे आँसुओं का नकलीपन पहचान में आ जायेगा । उसके फूटने के पहले छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये । -- विहाग वैभव

**************************************************************************

बड़ी दार्शनिक पंक्ति थी कि "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है" , और सम्वेदनायें ही वो ज़रिया थीं जो मनुष्य को समाज से सकारात्मक रूप से जोड़े रखती थीं। तिस पर भारत जैसे "सांस्कृतिक भावना प्रधान" देश में संवेदना ही वह सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी थी जो मनुष्य और समाज को तरल धागे में बाँधती थी। येे वो मनुष्य था, जो किसी को दुखी देख अनायास ही करुणाकलित हो उठता तो किसी अपिरिचित को खुश देख बेवजह ही हँस पड़ता था। वो मनुष्य जो राह चलते भी किसी की छप्पर उठाने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता था, तो किसी की मृत्यु होने पर पूरे गाँव के साथ कई दिनों तक अन्न की ओर देखता तक नहीं। जिसे आचार्य शुक्ल सहृदय-सामाजिक कहते हैं।

वैश्विक विकास के साथ मूल्यों में ह्रास होता चला गया। दुनिया बाजार हो गई और समाज, स्वार्थ का राजनैतिक अखाड़ा। आम आदमी और उसकी सम्वेदनायें महज़ इस्तेमाल होने की वस्तु हैं और उन्हें इस्तेमाल भी करता है आदमी। कभी सूट-बूट-टाई तो कभी खद्दर वाला आदमी। सम्वेदनाओं को देखकर लार टपकाता हुआ खूँखार जबड़ा....! चेहरे पर नकली सम्वेदना का लबादा ओढ़े वो हर भीड़ के पीछे खड़ा है। आम आदमी को संवेदनात्मक रूप से कमजोर करके उसकी सम्वेदनाओं को आग लगाकर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकना उसका पेशा है। उसे आपके दुःख से मतलब नहीं, उसे तो इस बात से मतलब है की आपके आंसुओं की मार्केट वैल्यू क्या है...!

प्रियांशु मिश्रा 
उस लालची आँखों वाले जबड़े के कई चेहरे हैं.... वो मिडिया से है, कार्पोरेट सेक्टर से है, राजनीति से है, ग्लैमर जगत की चकाचौंध से है। वो चेहरा हमारे चारो ओर है। वो प्रतीक्षारत है दंगों का, सूखे का, बाढ़ का, किसानों की मौत का, किसी विद्यार्थी की आत्महत्या का, सीमा पर जवानों की शहादत का, चोरी-डकैती- बलात्कार का.... हर उस दुर्घटना का कि जिसमें वो चार आंसू बहाकर उसका इस्तेमाल कर सके। भावनाओं के शोषण और स्वार्थ में लिपटी छद्म सम्वेदनाओं के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करती यह कविता आज के समय की भावुक आवश्यकता है। विहाग को बधाई...!!!


Thursday, June 22, 2017

#33# साप्ताहिक चयन 'कविता की खोज में' / अभिषेक आर्जव



कविता की खोज में 
______________________________________________


जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।



जैसे कल रात जल्दी सोया मैं
और सुबह ही मां ने जगाया ।
पूरे दिन सब कुछ वैसे ही चलता रहा
कक्षाएं, बेमतलब की पढ़ाई, दोस्त और भटकनें ।
नहीं जन्मी कोई कविता ।

जबकि कल के उस दिन में
जिसमें सब ठीक ठाक गुजर गया !
पूरे दिन जगह जगह , यहां वहां
खोजता रहा मैं कोई कविता ।

हरे सूखे बड़े छोटॆ,हर पेड़ की
डाल डाल देख डाली मैंने
कि शायद बूढ़े -से आम की किसी डण्ठल पर
धीरे धीरे कहीं जाती लाल चूंटों की
एक तल्‍लीन पंक्ति दिख जाय
अथवा
निकम्‍मे-से ऊंचे ताड़ के झुरमुट में बया के घोंसले सी टंगी
कहीं मिल जाय कोई कविता ।

बहुत देर तक टहलता देखता रहा मैं
दिन ब दिन तेज होते घाम में बड़ी बेरहमी से
खुरदुरी शुष्क निर्विकार रस्सी पर फैला दिये गये
जमकर धुले, चोट से कराहते ,साफ साफ,
कपड़ों को सूखते ।

पहुंचा मैं ऊंचे-से टीले के उस
पीछे वाले पीपर डीह पर भी ,
कि शायद आज भी कोई
अपनी अधूरी चाह की तड़पन का एक धागा
फिर लपेट गया हो वहां!

रास्ते में लौटते वक्त कहीं पर
कुंई कुंई करते , पीछे दौड़ते आ रहे
सफेद प्यारे गन्दे पिल्ले को थोड़ी देर रुककर
सहलाया भी , और चोर है कि साव ,
जांचने के लिये उसके कान भी खीचें ।

छत पर हल्का सा झुक आये आम के पेड़ में
गंदले धूलसने अनुभवी और निरीह-से पल्लव की एक पत्‍ती तोड़
उसकी पतली -सी डण्ठल को ऊंगलियों से पोछ
खूब मन से (मैंने) उसे कुटका भी
और उसके हल्के कसैले स्वाद को
थोड़ी देर तक चुभलाया भी ।

शाम को लंकेटिंग* के दौरान
अमर बुक स्टाल के ठीक सामने
ठेले पर सजने वाली चाय की दुकान पर
पांच रुपये वाली इस्पेसल चाय की छोटी सी गरम डिबिया थामें
पास ही में जमीन पर लगभग ड़ेढ फूट चौड़ी ,
सड़क के पूरे किनारे को अपनी बपौती -सी समझती हुयी
खूब दूर तक बड़े आराम से पसरी
लबालब कीच व तरह तरह के कचरे से अटी पड़ी ,
बस्साती गन्दी नाली में एक ओर
आधे डूबे , फूले , मटमैले पराग दूध के खाली पैकेट और
उस पर सिर टिका कर सोये -से
अण्डे के अभी भी कुछ कुछ सफेद छिलकों को
खड़े खडे़ कुछ समय तक घूरता भी रहा (मै ) ।


लेकिन . . . .. .
अन्ततः नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।

(इसके अलावा , इस खोज में )


बहुत देर तक नीलू के साथ
घूमता रहा (मैं) आईपी माल में ।
मैक डोनाल्ड में पिज्जा खाते ,
थर्ड फ्‍लोर के हाल टू में गजनी देखते
भीतर के गीले अंधेरों में,
सच में प्रेम करने वालों की तरह ही
हमने एक दूसरे को महसूस भी किया
और इण्टरवल में नेस्कफे के काउण्टर पर
एक दूसरे से सचमुच में यह बतियाते रहे कि
यहां तीस रुपये में कितनी बेकार काफी मिल रही है
जबकि कैम्पस में वीटी पर दस में ही कितनी अच्छी मिल जाती है ।

लेकिन . . .. .
आखिरकार. . .. नहीं जन्मी कोई कविता
क्योंकि जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है
उस दिन नहीं जन्मती कोई कविता ।


 


x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x-x

'जहाँ ना पहुंचे रवि, वहाँ भी पहुंचे कवि' , बचपन से यह पंक्ति सुनता आ रहा हूँ l बहुधा व्यंग में अथवा अभिधा में l अर्थ बेहद धीरे धीरे खुलते हैं, कई बार तो बेहद सहज समझे जाने वाले शब्दों के युग्म अपने भीतर बड़े गहरे आस्वादन समाये होते हैं l ज़िन्दगी में जितने गहरे हम उतरे होते हैं, शब्दों के मायने तह दर तह उतने ही उधड़ते जाते हैं l कविता यों तो सहज है विधा है पर सहजता यों कुछ सहज नहीं l इस सप्ताह नवोत्पल की कविता की खोज जिस कविता पर आकर रुकी उसका शीर्षक ही 'कविता की खोज में ' है l अभिषेक आर्जव नवोत्पल के पुराने संगी हैं और आप भारतीय संसद में कार्यरत हैं l भाषा-शब्दों-अर्थों-बिम्बों-ध्वनियों से आपका परिचय तकनीकी भी है और आपमें उन्हें लेकर एक मोहक संजीदगी भी है l 

कविता का शीर्षक ' कविता की खोज में ' है और यह एक अनायास उन्वान नहीं है l कवि की पहली चुनौती उस विषय की खोज होती है जिसपर कविता लिखी जानी चाहिए l जिस समाज में यह खोज कठिन होने लगे तो उसका आशय जरुरी नहीं कि सकारात्मक हो l चुनौतियों भरे देश काल सामाजिक परिस्थितियों में यह स्वाभाविक है कि कविता नित नए नवीन विषय से बारम्बार उपजती रहे किन्तु ऐसी स्थिति उस समाज में भी हो सकती है जहाँ एक तरह की इनर्शिया घर कर गयी हो l जहाँ कुछ अब ना हो पाना नियति मालूम पड़ती हो l कुछ ना हो पाने की स्थिति अभी कन्फर्म नहीं है क्योंकि कविता लिखी जा रही है...पर शीर्षक कहता है कि कविता खोजनी पड़ रही है l यह स्थिति मोंटेल की उपरोक्त उक्ति के उलट है जिसमें कविता खुदबखुद उनके पास टहलते हुए आ जाती है छमछम l ज़ाहिर है कवि उन परिस्थितियों में है जहाँ सब कुछ ठहरा सा सामान्य दिखता है पर कवि उस ठहराव तक पहुँच ही जाता है l 

हाँ; 'जिस दिन सब कुछ अच्छा रहता है, उस दिन नहीं जन्मती कविता '! जरुरत ही कहाँ बचती है कविता की, फिर l अच्छे दिनों में तो गीत गाये जाते हैं, शासकों के लिए लोरियां गुथी जाती हैं मालाओं में l शासक चाहते हैं कि कविता ना लिखी जाए, क्योंकि वह खरीद-फरोख्त का शिकार नहीं बनती आसानी से l कविता को 'पॉलिटिकली करेक्ट ' नहीं होना होता l उसे किसी सुयोग-दुर्योग की चिंता नहीं होती सो उसे कोई योग नहीं साधना पड़ता l कवि कहता है कि वह कल रात जल्दी सो गया, कुछ जागने को ना हो जैसे या समझ आया हो कि जागने का कोई फायदा ना हो अब, तो जल्दी सोया l दिन प्रकट हुआ और गुजरता रहा l कुछ अब खटकता नहीं, कहाँ से आयेगी कविता l 

कविता की यह तलाश उसे आसपास टटोलने को मजबूर करती है तो अरसे बाद नज़र पड़ती है दरख्तों और पत्तों से लदे-फदे डालियों पर l हर पल प्राणवायु खींचने वाले हम कृतघ्न, इन बेजुबानों को देखते तो हैं पर नज़र ठहरती कहाँ हैं कभी उनपर, फिसलती जाती है लोभी मन के ईशारों पर l ध्यान इतना सहज नहीं l पर कविता की खोज अपने आप में एक आँख खोल देने वाली प्रक्रिया है l हमने आसपास को महसूसना कुछ इस कदर छोड़ दिया है कि कवि कहता है कि लाल चीटियों की एकसार कतार और बया के लटकते घोंसले जैसे अब नहीं मिलते अक्सर, वैसे ही कविता भी उगने का नाम नहीं ले रही l 

लगभग रोज ही उजला दिखने की चाहत से मजबूर रस्सियों से लटके धुले गीले कपड़ों को देखकर भी नहीं आती मन में कोई कविता l कविता क्यों आयेगी आखिर, वह श्वेत और श्याम दोनों को समेटती है और यहाँ बस सफेदी की हवस है l कभी लोग मन का चाहा के लिए ही सही, धागा बाँध पीपल से बतिया लेते थे...चलकर देखा वहां भी और वापसी में आवारा पिल्ले को सहलाया भी, पर यहाँ भी नहीं कौंधी कोई कविता l 

बाजार आम बोतलों में पहुंचाता है जब तब, पर अपने ही छत के आम से मिले कैसे इतना अरसा हो गया l और कविता की खोज में इक पत्ती की डंठल को चखा भी, महसूस किया उसका वही कसैला पर महकता स्वाद...पर अफ़सोस यहाँ भी कविता के शाखों पर बौर आने से रहे l यहाँ-वहां ऐवें ही घूमते हुए भी नहीं आयी कोई कविता जबकि दिखे कवि को बुक स्टॉल के सामने की चाय की दूकान के सामने बिखरे कई दृश्य भी l 

अंततः बाजार के मॉडर्न अवतार मॉल में वही सब कुछ किया जो बाकी करने जाते हैं पर कितना अजीब है और क्यों ऐसा है कि नहीं आयी कोई कविता ...?

अद्भुत...आर्जव अद्भुत !!!


डॉ. श्रीश 

Thursday, June 15, 2017

#32# साप्ताहिक चयन 'मुक़दमा' / 'पूनम विश्वकर्मा '

पूनम विश्वकर्मा 'वासम'
साहित्य में यूं तो  आदिवासी स्वर की कविताएं रची जा रही है , पर शायद दूर  कहीं वातानुकूलित माहौल में, बैठ कर लिखने वाले कवि इस आदिवासी मर्म को लिख तो पाते हैं पर पाठक उनसे कहीं  जुड़ाव नहीं महसूस कर पाता । कविता से पाठक की यह दूरी शायद कवि की विषय से दूरी के बराबर ही होती है । आदिवासी जिले बस्तर में रहने वाली पूनम विश्वकर्मा 'वासम' इस दूरी को न्यूनतम कर देने वाली लेखिका हैं, जिनकी कविता "मुकदमा" ही आज नवोत्पल साप्ताहिक चयन की प्रविष्टि है ।

कविता की टिप्पणीकार,  स्मिता राजेश  सजग पाठक हैं और  केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड की सदस्य रह चुकी है । रेडियो उद्घोषक के रूप में आपने इंदौर आकाशवाणी केंद्र में सेवाएं दी हैं। आप फ़िलहाल मुम्बई में अपना अभिनय स्कूल सफलता से चला रही हैं ।


**********************************************************************************



मुकदमा
------------------------

Flying Land by Leonard Digenio

हजारों  वृक्षो की हत्या का मुकदमा
दायर किया बची- कूची सूखी पत्तियों ने
बुलाया गया उन हत्यारों को
दी गई हाथ में  गीता....
कसम भी खाया भरी अदालत में
कि जो कुछ कहेंगे सच कहेंगे
कहा भी वही जो सच था !

अदालत ने भी माना कि
वृक्षो की हत्या कोई सोची -समझी रणनीति नही थी
और नही कोई साज़िश रची थी हत्यारों ने
क़सूर तो था वृक्षो का जिन्होंने कि थी कोशिश
धरती को सूरज की तपिश से बचायें रखने की

मूर्ख  थे सारे के सारे वृक्ष
मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का
सबसे बड़ा अनुवादक !

 थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को
नीले समुन्द्र की खेती के लिए !

मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
काँक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल
मधुमखियों से इनकी अच्छी जमती थी
इसलिए बाँट आते थे तितलियों को
उनके हिस्से का दाना-पानी  !

अपनी हवाओं के बदले
हमारी सांसे  रखना चाहतें थे गिरवी
इसलिए उन सारे वृक्षो को उखाड़ कर फेंक दिया
जिनकी जड़े जुड़ी हुई थी हमारे हिस्से की मिट्टी से !

मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष इन्हें शायद पता नही कि
जिन्दा रहने के लिए अब  कृत्रिम हवा ही काफ़ी है

डाली से अलग हुई सूखी पत्तियों को भी
उतनी अक़्ल कहाँ कि ....
करते विरोध वृक्षो की हत्या का
अच्छा होता ग़र समय रहते सारे के सारे वृक्ष बैठ जाते
 बिना कुछ कहें बिना कुछ सुनें अनशन पर।





**********************************************************************************
कविताओं की शृंखला में से किसी एक को चुनना,काफ़ी कठिन होता है क्योंकि हर कवि की अपनी कल्पना है अपना रचित संसार है जहाँ उसकी सत्ता है उसकी प्रजा है। इसलिये हर नाम स्वयं में प्रमुख होता है।
मगर,कहीं कोई एक रचना त्वरित रूप में हमें बाँधती है। कारण प्रथम दृष्टया तो समझ नहीं आते,मगर कहीं कोई पृथकता अवश्य होती है जो दिमाग़ नहीं दिल से अपनी राह तय करती है।
'मुकदमा', ऐसी ही एक कविता है। रचना की सफलता उसके भाषायी सौंदर्य से बढ़कर इस तथ्य में अधिक निहित होता है कि वो आम पाठक को कितनी समझ में आई?
इसी दृष्टिकोण से अगर देखें तो उपरोक्त कविता प्रथम अपने विषय को लेकर आकर्षित करती है। प्रकृति पर अमूमन कवितायें काम ही लिखी जाती हैं बनस्पत और विषयों के और लिखी भी जाती हैं तो उसके सौंदर्य पर । उसके दर्द को समेटने। उसके निःस्वार्थ स्वभाव को दर्शाने। उसके 'व्यावहारिक' न होने का जो चित्रण कवि ने इस कविता में प्रयास रूप जो किया है वह सराहनीय है।

"थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ 
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को 
नीले समुन्द्र की खेती के लिए"

कवि ने वृक्षों की ओर से जिरह करते हुए जिस सुंदरता से समानांतर रूप में कटाक्ष और पीड़ा के भावों को चलने दिया वह सुखद है।
कविता अपने विषय को लेकर आराम्भ में जो पकड़ बनाती है वह शायद कमज़ोर पड़ी है समाप्ति की तरफ़ बढ़ते हुये। वृक्षों के सदाचारी आचरण को वर्तमान परिप्रेक्ष्य की राजनीति से जोड़ते हुए जिस तरह कविता का आकस्मिक अंत हुआ वह कहीं कविता की चाल को अधूरी कर गया। 
द्वितीय रूप में कविता गद्य रूप में होकर भी पद्य सी मोहक लगती है। एक अनदेखा सा सुर लगातार बहता है । 
मूर्ख  थे सारे के सारे वृक्ष
मान बैठें खुद को चाँद की मौन किरणों की भाषा का
सबसे बड़ा अनुवादक !

 थी बादलों से भी  इनकी साठ -गांठ 
इसलिए रोप आते थे धरती की कोख़ में
अंसख्य नन्ही-नन्ही बूंदों को 
नीले समुन्द्र की खेती के लिए !

"मूर्ख थे सारे के सारे वृक्ष
काँक्रीट के जंगलों में उगाना चाहते थे गुलमोहर के फ़ूल 
मधुमखियों से इनकी अच्छी जमती थी
इसलिए बाँट आते थे तितलियों को
उनके हिस्से का दाना-पानी "

स्मिता राजेश 
कवि को साधुवाद जो एक ऐसे विषय को अपनी कविता का आधार बनाया जो पाठकों को उतना नहीं लुभाता जितने अन्य विषय। वृक्षों का चरित्र चित्रण निःसंदेह बाँधता है। उनकी निश्छल छवि का वर्णन कम शब्दों में लुभाता है। भाषा सरल है यही इसकी सुंदरता है। कवि ने बस मन की पुकार को जैसे कैनवास में जगह दी है।।
एक प्रशंसनीय रचना पर बधाई।                                     (स्मिता राजेश )

Wednesday, June 14, 2017

#८# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा

दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा 

न्याय और कानून जैसा कुछ नहीं रहा अब।बस सावधान इंडिया और सी.आई. डी में ही एक बाल से भी मुजरिम तक पहुँच जाते हैं।यहाँ सारे सबूत भी रख दो तो पुलिस इन्क्वायरी के बहाने रिश्वत की ताड़ में रहती है। Lower courts में सिर्फ 5% ही बड़ी किस्मत से अगर आपका पासा सही मान लिया जाए तो जीत जाओगे केस पर आगे high court भी हैं अपील को।वैसे lower court में कोई ही मुजरिम साबित हो पाता है।

वकील केस लेते हुए कुछ बाद में कुछ हो जाते हैं।

हर जगह सिर खपाया। S.S.P.,D.I.G ,Human Rights etc.कितनी ही ऑनलाइन complains भी की कि किसी तरह arrest से बचा जा सके।जहाँ जिस वकील ने जो राय दी,गए।इसी दौरान नेट पे अलग-2 id भी खोलीं जहाँ ज्यादातर कुछ न कुछ सर्च ही करती थी। C.B.I. में भी onl9 ही लॉकर illegaly ऑपरेट होने की कंप्लेन लिखवाई। कॉल भी आयी पूछने कि क्या मामला है।जब बताया तो कहने लगे कि यह तो घरेलू मामला है।मैंने कहा कि लॉकर बैंक से illegaly ऑपरेट हुआ है।घर से चोरी नहीं हुई।क्या बैंक की कोई जिम्मेदारी नहीं थी।हम लोगों की कंप्लेन पुलिस दर्ज नहीं कर रही।और चोरी करने वाले हमको धमका रहे हैं।आखिर और कौन से मामले आप लोग देखते हो?फ़ोन काट दिया गया उधर से।फिर नहीं आया कोई।

Anticipatory bail भी opposition ने वकील से मिलके ख़ारिज करवा दी।कहीं जज तो कहीं वक़ील,सबके दाम हैं।बस आपको मालूम होने चाहिए कितने और कहाँ।अब इतनी समझ होती तो इस फेर में क्यों पड़ते।इतने ऑफर्स compromise के आ रहे थे कि केस वापिस ले लो आगे कुछ नहीं होगा।आराम से घर बैठो।पर दिल में था कि जो यह करवा रहे हैं सजा दिला के रहेंगे।मीडिया में गए तो पूछने लगे कि कितने लोग तुम्हारे पीछे हैं यां किसी ख़ास ने भेजा है क्या?

चंडीगढ़ इस f.i.r. की quashing भी लगायी। पर आखिर डेल्ही चंडीगढ़ सब घूम घाम के वापिस ही आना पड़ा क्योंकि नीचे से ही सब खराब था तो ऊपर से क्या ख़ाक ठीक होता। 
आखिर हमने कोर्ट में surrender किया। वहां भी bail ख़ारिज कर दी गयी। यूँ तो मर्डर पे भी on the spot bail मिल जाती है बस जज का rate पता हो आपको वैसे किसी भी केस में नहीं मिलती। वहां हमको 2 दिन का पुलिस रिमांड और फिर judicial custody यानी जेल भेजा जाना था।रिमांड बाद में 2 दिन और बढ़ा दिया गया opposition की कृपा से।
पता नहीं क्या बरामद करना था हमसे इन्होंने।

********************************************************************************

"लिख-लिख के जो कर्ज़े उतार रहे हैं
ऐसा भी जिंदगी क्या तेरा उधार रहा...–मन्नत"
"यूँ ही तो मिले थे हम के शुरूआती पन्ने–बहकते ख्यालों का हक़ीक़ती क़त्ल और जिंदगी के हिसाब बाकी किताब।
जैसे कहूँ यां वैसे– कुछ हुआ भी नहीं...
छूट जाता है बहुत कुछ सफ़र में जाने-अनजाने।

मेरे मम्मी-पापा बहुत दुःखी थे हमारे इस तरह के हालात पे।
कहाँ पापा ने कहीं जाने नहीं दिया था और अब मैं कचहरी तो क्या जेल भी जा रही थी।
चाहे कितने भी सख्त स्वभाव के थे पापा।रसोई क्या चली जाती थी।बाहर बुला लेते थे कह के कि हाथ जला लेगी।मम्मी चाहे कलपती थी कि शादी में साथ नौकर भेजोगे क्या?
सभी लड़का पसंद कर लेते मुझे बस हाँ कहने को ही बुलाना होता था तो चुपके से किसी से मैसेज करवा देते कि नहीं पसंद तो बस न बोल देना।बाकी मैं संभाल लूँगा। शादी के बाद एक बार उनको kinectic honda पे अपने पीछे बैठा के कहीं जरूरी क्या लेके गयी सारा रास्ता यही पूछते रहे कि रास्ता मालूम भी है।चला भी लेगी के नहीं।हालांकि कॉलेज अकेले ही आती-जाती थी पर उसके अलावा कोई और रास्ता मुझे मालूम भी होगा इस पे उनको doubt ही था। वो भी बहुत पहले मेरी तरह सारे हालात समझ चुके थे।यूँ तो बहुत कम ही बात होती थी हमारे बीच पर बार-2 कह चुके थे कि अपने पति को समझा किसी तरह।बहुत बार समझाने पे भी कुछ असर ही नहीं था तो क्या करती।लड़ाई करती यां मायके जा के बैठ जाती और बस यही उसकी बहनें चाहती थी।
कोई मायके से समझाए तो interfere का इल्ज़ाम।न पूछे तो परवाह ही नहीं किसी को।बस यहीं दिमाग अटका रहता हो जिस आदमी का।उस का कोई करे भी तो क्या?


वैसे भी वक़्त के साथ अब पहले वाले पापा तो रहे नहीं थे। डायबिटीज के कारण बीमार रहने लगे थे।मेरा मन भी नहीं होता था अपनी कोई परेशानी बताने को।

(क्रमशः)

Thursday, June 8, 2017

#31# साप्ताहिक चयन: 'गाँव' / 'मिथिलेश कुमार राय '

धर्म की सेकुलर समझ जहाँ उसे व्यक्तिगत स्तर पर जाकर करीब करीब आध्यात्मिक उन्नयन तक ले जाती है वहीँ बाजार ने व्यक्तिवाद की शह पाकर आस्थाएं भी रिप्रोड्यूस करने की क्षमता ईजाद कर ली है l ऐसे में व्यक्तिगत प्रार्थनाएं मार्मिक तह तक एंटागोनीस्टिक हुई हैं और समरसता लहलहाने को पानी मांग रही है l

किसान एक सीरियस कंसर्न हैं, पर इससे काफी पहले यह कंसर्न चुनावी नारों और लीडरान का मुखराग बन चुके हैं l किसान कहाँ हैं...बेतरतीब शहरों और तरजीही स्मार्ट शहरों के आसपास धंसे हुए से इलाके, जहाँ टीवी, डीटीएच, मोबाइल तो पहुँच गए हैं गरीबी रेखा के नीचे वाली जमावटों में भी पर वे सीमान्त ही बने रहने को मानो अभिशप्त हैं l भारत, गाँवों का देश है, इस पंक्ति की प्रतीति देश के हर दशक में बदल जाती है l 

जब अज्ञेय सांप से पूंछते हैं कि डंसना कहाँ से सीखा तो तोहमत शहर पर गिरी थी, पर वो तब का गाँव था l शहर की मोनो आक्साईड अब गाँव के हर गले से लग गयी है l गाँव के तब सांस्कृतिक प्रकार होते थे जिनका वैविध्य राष्ट्र को संबल देता था l अब भी यह विविधता है पर वैषम्य एकरूपता के नीचे कहीं दबी-कुचली सी l आज का कवि उसी गाँव को फिर-फिर निरख रहा है और कविता अपना उचित आकार पा रही है l 

मिथिलेश कुमार राय 

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एवं उम्दा कलमकार मिथिलेश कुमार राय जी की कविता 'गाँव' आज की नवोत्पल की साप्ताहिक चयन प्रविष्टि है l आप नियमित रूप से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से सराहे जाते रहे हैं एवं पत्रकारिता के छोटे अंतराल के पश्चात सम्प्रति गाँव में ही अध्यापनरत हैं l 
आपकी कविता पर टिप्पणी के लिए डॉ. विवेक कुमार जी से आग्रह किया गया और आपने अपनी सहज टिप्पणी विशिष्ट अंदाज में की है l 




*************************************************

गाँव

वे प्रार्थना में
कौन सा मंत्र बुदबुदाते होंगे
जिस गाँव में नहर नहीं होता होगा
वहाँ के किसान
पानी के बारे में किस तरह से सोचते होंगे

उस गाँव की यात्रा कैसी रहेगी
जहाँ बड़े लोगों की बड़ी आबादी से कुछ दूर
छोटे लोगों की छोटी सी आबादी बसी होगी
वहाँ कुछ दिन ठहरना कैसा रहेगा
वहाँ मैं क्या-क्या देख सकता हूँ

ऐसा एक गाँव जहाँ सिर्फ
छोटे लोग बसे हो
वहाँ की सड़कें कैसी होगी
क्या अब भी वहाँ लालटेन से भेंट होगी
मैं जाउंगा तो यह भी देखूंगा कि
स्कूल के समय में वहाँ के बच्चे
कहाँ जाते हैं


वे गाँव जो
नदी में बसे हुए हैं
वहाँ धान की फसल किस तरह लहलहाती होगी
वहाँ के लोगों को भागना पड़ता होगा तो वे
किस तरफ भागते होंगे

मैं कुछ दिन
शहर से सटे गाँव में बीताना चाहता हूँ
मैं वहाँ की गालियों पर गौर करना चाहता हूँ कि
वे शहरी हो गए हैं या
उनमें कुछ अब भी बचा हुआ है

शहर से दूर के गाँव
रौशनी देखकर क्या विचार करते होंगे
कुछ दिन वहाँ ठहरकर
मैं यह भी पढ़ना चाहता हूँ

               


कविता पर कुछ कहने से पहले साहित्य और समाज पर कुछ कहना चाहूँगा। आज हम एक संक्रमण काल में जी रहें हैं जहाँ आधुनिकता और विकास के नाम पर नए नए प्रयोग किये जा रहें हैं। इनके अपने प्रभाव और कुप्रभाव दोनों हैं। बढ़ते शहरीकरणमें गाँव को खोने की कसक सबके अन्दर है पर देहाती होने की शर्म भी है। परिणाम यह है की धीरे धीरे सबके अन्दर का गाँव मर रहा है। अब अगर साहित्य की बात करूँ तो एज चिर परिचित सी परिभाषा जो सबसे पहले दिमाग में आती है वो है साहित्य समाज का दर्पण है। परन्तु समाज के प्रस्तुतीकरण के पीछे साहित्य का उद्देश्य क्या है? क्या केवल मनोरंजन या एक यथोचित प्रश्न? मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं कि "साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है ... उसे उन प्रश्नों में दिलचस्पी है जिनसे समाज या व्यक्ति गहरे प्रभावित होतें हैं।" कह सकतें हैं कि साहित्य शब्दों के माध्यम से समाज की एक ऐसी सच्चाई को प्रस्तुत करता है जो दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डालती है और सोचने पर मजबूर करती है।
मिथिलेश जी की कविता "गाँव" इस तरहा ही सोचनें पर मजबूर करती है। कविता के माध्यम से कवि ढूंढने की कोशिश करता है कि क्या "उनमें कुछ अब भी बचा हुआ है। शब्द बहुआयामी हैं जो एक ही समय पर कई सारे प्रश्न खडे करते हैं।

      "जिस गाँव में नहर नहीं होता होगा
        वहां के किसान
       पानी के बारे में किस तरह सोचते होंगे।"

कविता गाँव को खोजने की कोशिश करती है। प्रश्न करती है कि क्या गाँव वही है जो हम सोचते हैं या फिर कुछ अलग।
बचपन में गाँव जाने का एक अलग ही रोमांच होता था। ये रोमांच न केवल खेत खलिहानों का था बल्कि उन चीजों का था जी शहरों में नहीं थी। चीका, ओला-पाती और खलिहान में लुकाछिपी का एक अलग ही आकर्षण था। गाँव के ठेठपने में एक अपनापन सा था। ये सब समय के साथ विकास और शहरीकरण की भेंट चढ़ गए हैं। कवि नौस्टल्जिक होता है और सोचता है कि "क्या अब भी वहां लालटेन से भेंट होगी..!”
कवि देखना चाहता है की गाँवों को किस हद तक शहर बना दिया गया है या फिर उनमें अब भी गाँव जिन्दा है। क्या गाँव की लाइफस्टाइल में भदेसपन अब भी है या वे पूरी तरह शहरी ही हो गए हैं। वहां की आबादी, सड़कें, दिन रात कैसे हैं। क्या क्या अंतर है। मगर जिन गाँवों की बात कवि कर रहा है वो भी दो तरीके के हैं। एक वो जो शहरों से सटे हैं विकसित जिनको आदर्श माना जाता है और दुसरे वो जो विकास से दूर  शायद अब भी निरे देहाती। वे गाँव जो

       "नदी में बसे हुए हैं...
        वहां के लोगों को भागना पड़ता होगा तो वे
        किस तरफ भागते होंगे।"

ऐसे गाँव उन शहरी गांवों से किस तरह अलग हैं।

  "मैं कुछ दिन
  शहर से सटे गाँव में बिताना चाहता हूँ...
  वे शहरी हो गए हैं या
  उनमे कुछ अब भी बचा हुआ है"


अंतिम प्रश्न महत्वपूर्ण है और कविता का सार है कि "शहर से दूर के गाँव, रौशनी देखकर क्या विचार रखते होंगे।" क्या वे शहरी होना चाहते हैं या गाँव को सहेज कर रखना चाहते हैं।"
डॉ. विवेक कुमार 

Thursday, June 1, 2017

#30# साप्ताहिक चयन: 'जामुन का भूत ' / 'शायक आलोक'


शोषण की इंतिहा प्रतिरोध के अनन्य विधाएं आविष्कृत करती रही है l शहर या गाँव का विभाजन इसमें आड़े नहीं आता l यह सर्वकालिक व सर्वव्यापक है l धर्म ने थककर अपने उमर भर की कमाई राजनीति को सौपीं और नए जमाने ने ढूंढ लिए नए तरीके पुराने शोषणों को जारी रखने के l तो यह स्पर्धा चलती जाती है, जबतब किरदार बदलते-ढलते जाते हैं l 

नवोत्पल साहित्यिक चयन की तीसवीं प्रविष्टि एक विशिष्ट प्रविष्टि है सो शायक आलोक जी से आग्रह किया गया और उन्होंने नवोत्पल को शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए अपनी एक प्रिय कविता 'जामुन का भूत ' प्रेषित की l आप समकालीन युवा हिंदी कविता के सर्वाधिक चमकते सितारों में से हैं जिनकी कविता वह कहने से कभी नहीं चुकती जिस हेतु वह आकार पाती है l इस कविता पर यों तो हमें लोकप्रिय कलमकार आलोक झा जी की सुचिंतित विस्तृत टिप्पणी सस्नेह मिली है किन्तु अपनी इस कविता पर शायक स्वयं कुछ यों लिखते हैं :

शायक आलोक 
"यह कविता एक अजब कहानी है. कोई दलित मरा है तो उस दलित के मर कर भूत हो जाने की कहानी उसी वर्ग की तरफ से (कानी बुढ़िया) फैलाई गई है. (प्रतिरोध ने मिथक रच लिया है क्योंकि मिथक अंधाधुंध समर्थन के लिए मनोवैज्ञानिक काम करता है). और अब यह भूत सत्ता के सब प्रतीकों पर हमला कर रहा है. पहले उसने किसी प्रतीक में आर्थिक शोषण तंत्र (साहूकार) को पटका और फिर उसे पवित्र घोषित करने वाली ब्राह्मणवादी व्यवस्था (राम नारायण पंडित) को, जिसका उससे नेक्सस है. यह नेक्सस न केवल आर्थिक शोषण तंत्र को धार्मिक नैतिकता प्रदान करने में है बल्कि ब्राह्मण वर्ग खुद भी सदियों से आर्थिक शोषण का प्रकट भागीदार है (उसके बाप के बाप ने). यह कविता फिर एक हमला उस विडंबना पर कर देती है जहाँ जिंदा नंगे भूखों का कोई महत्व नहीं, लेकिन मृत पत्थर प्रतीकों को किसी अलौकिक भय से पूजा जाता है (गोबर जो पूरी ज़िन्दगी दो जून की रोटी की फिक्र में रहा उसका भूत हर शनिवार को खाता है बताशे ). विमर्श का उत्थान यह है कि अफवाह से उभारा गया यह नायक या यह प्रतिरोध केवल हमलों तक सीमित नहीं है बल्कि अपने शोषित वर्ग के लिए न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना भी करने लगा है. यह स्थापना उस वर्ग का भय दूर करने और उसे साहस देने में प्रकट है (नहीं डरती चंपा). और अंत में कविता चुनावी लोकतंत्र के संक्रमण पर हमला कर देती है जहाँ यह नग्न खुलासा कर देती है कि एक शोषित वर्ग के उभार के विरुद्ध सामाजिक-आर्थिक सत्ता और राजनीतिक सत्ता के बीच एक गठजोड़ हो जाता है (भूतों की सत्ता चुनौती है सरकार के लिए). मैंने यहाँ भारतीय संदर्भ का वास्तविक पाठ ही लिया है जहाँ शोषितों के किसी प्रतिरोध आंदोलन को शोषितों के विरुद्ध ही प्रस्तावित कर सरकारें उनके दमन का तर्क ढूंढती हैं. एक अजीब बात और हुई है कि प्रेमचंद की कई कहानियों के विवश व नैसर्गिक व सुरंग-बंद अंत की तरह यह कविता यूँही समाप्त नहीं होती और एक संभावना, एक रौशनी का संकेत देती है कि जामुन का भूत नया जामुन ढूंढ सकता है. " (शायक)

आलोक झा जी की सहज टीप इस कविता को अन्य उपयोगी विमाओं से देखती-परखती है और ऐसी कवितायें जिस वैकुअम को भरती हैं उस आधारभूमि की समानांतर विमर्शों तक अपनी टीप से उसे सहज संस्पर्श करा रहे हैं l 
***************************************************************

साभार हिंदी कला 
जामुन का भूत 
__________________

किसी गाँव में जब गोबर नाम का दलित मरा तो भूत हो गया 
तो वह भूत रहने लगा उसी गाँव के बँसवारी में 
पहलेपहल तो यह बात कानी बुढ़िया ने कही और 
फिर किस्से शुरू हो गए.

एक दिन जब गोबर ने उठा पटक मारा बगल गाँव के सुखला साहूकार को 
और उसका बटुआ भी छीन लिया तब तो बड़ा हंगामा हुआ 
सुखला का गमछा पाया गया गाँव से दो कोस दूर 
ऐसा बिछा हुआ जैसे गोबर ही उस पर सुस्ताने दो दम मारा हो. 

तो तय यह पाया गया कि हाथ पैर जोड़ कर बुला लिया जाय रामनारायण पंडित को 
और खूब जोर से कच्चे धागे से बंधवा दिया जाए उस नासपीटे जामुन को 
जामुन जो बँसवारी का अकेला ऐसा पेड़ था जो बांस नहीं था. 

लेकिन उसी रोज रात में घटी एक और घटना 
'
न देखा न सुना' - कहती है रामजपन की माई भी 
बिशो सिंह के दरवाजे सत्तनारायण संपन्न करा के लौट रहे रामनारायण पंडित को 
बँसवारी के आगे धर दबोचा गोबर ने 
और ऐसा भूत मन्त्र मारा कि गूंगे हो गए बेचारे 
बोलते हैं तो सिर्फ चक्की के घिर्र घिर्र की आवाज़ आती है.

कहते हैं कि गोबर के दोमुंहे पुराने घर थी ऐसी ही एक चक्की जो 
उसके बाप ने अपने बाप के श्राद्ध में रामनारायण को गिरवी बेचा था. 

खैर जामुन के भूत को बाँध दिया गया और गोबर से शांत रहने की प्रार्थना की गई.



गोबर जो पूरी ज़िन्दगी दो जून की रोटी की फिक्र में रहा उसका भूत 
हर शनिवार को खाता है बताशे 
कभी भूख बढ़ने पर जन्मते ही खा जाता है मवेशियों के बच्चे 
अपने साथी भूतों के भोज के लिए एक दिन जला डाला मुर्गों का दड़बा
चबाई हड्डियाँ डोभे में फेंक दी.

गोबर के भूत ने न्याय भी लाया है गाँव में 
मुंह अँधेरे अब शौच जाने से नहीं डरती चंपा 
हर महीने सरसतिया के जिस्म पर आने वाला भूत अब नहीं आता
गुनगुनाते हुए बड़े दालान से गुजर लेती है अठोतरी.

सुना है गोबर अन्य भूतों संग रोज रात को बँसवारी में करता है बैठकें 
हंसने और जोर जोर से बतियाने की आवाज़ आती है. 

टीवी पर जब से आई है गोबर की कहानी 
सरकार फिक्रमंद है आम जान माल को लेकर 
भूतों की सत्ता चुनौती है सरकार के लिए 
इसलिए सेना निपटेगी उनसे लोकसभा चुनाव के पहले पहल. 

मज़े में जी रहे जामुन के भूत को दूसरा जामुन ढूंढना होगा.

________________ 
शायक

***************************************************************

आलोक झा 
इस कविता में गोबर उसी तरह है जिस तरह से फिल्मों में इन एंड एज़ होता है । लेकिन यह गोबर , गोबर नहीं गोबरधन हो सकता है जो कहीं तत्सम में गोवर्धन रहा हो । गोबर का भूत इस कविता का केंद्र है और उसकी लीलाएँ कविता को गति प्रदान करती हैं । गोबर मरकर भूत हो गया । भूत होना नकारात्मक होने की सबसे बड़ी निशानी है ऐसा लगभग सभी धर्म और समुदाय अपनी कथाओं के माध्यम से हमें देते आ रहे हैं । लेकिन गोबर का भूत नकारात्मक नहीं है बल्कि उसी जैसे लोगों के खिलाफ हुई सभी तरह की हिंसा के विरोध में उठे हल्के से हल्के विचार का प्रॉजेक्शन है । अपनी क्षमताएँ जब मजबूत के सामने खड़े होने के विचार से भी डरा देती है तो मन में नायक की जरूरत होती है । इस कविता में गोबर का भूत नायक है कविता का नहीं बल्कि कविता में आए समाज का । हालांकि नायक वह उस समाज के एक हिस्से का ही है लेकिन वह उस हिस्से को मानसिक मजबूती देता हैं । यह मजबूती निश्चित तौर पर प्रतीकों , देवी देवताओं भरे उस समाज में उसे महत्वपूर्ण स्थान दिलाती है । यह उस समाज की मनोवैज्ञानिक विजय है जिनके साथ लगातार मानसिक , शारीरिक और अन्य तरह की हिंसा होती रही ।

कविता जो अगला अर्थ खोलती है वह हमें उस संघर्ष की ओर ले जाता है जो अब जाकर संघर्ष का रूप ले पाया है । इससे पहले एकतरफा दादागिरी के खिलाफ इक्का – दुक्का कोई दास्तान हो तो हो वरना सवर्णों की हिंसा या धनिकों की हिंसा या कई मामलों में दोनों ही प्रकार की हिंसा के खिलाफ संघर्ष तो दूर खड़े होने की बात भी नहीं आ पाती थी । अब एक बार को यह डर हो भी कि सामने वाला पक्ष सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत है तो भी प्रतिकार किया जाता है । और अब सब सहकर सहम जाना नहीं बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष करना केंद्र में आ गया है । यह संघर्ष हमेशा भौतिक हो जरूरी नहीं । हमला सामने वाले के दिमाग पर कर रहा है गोबर का भूत ।

फर्ज़ करिए कि गोबर मरा ही नहीं । जिंदा है ! अब जो स्थिति बनती है वह ज्यादा रोमांचकारी और मजबूत है । गोबर रोबिनहूड़ है और वंचितों के न्याय का वाहक है । इस तरह संघर्ष का नया आयाम खुलता है जहाँ गुरिल्ला पद्धति का संघर्ष है जो भौतिक स्तर पर भी लड़ा जा रहा है । समय की जरूरत यह भी है ।

पूरी कविता गोबर के भूत के इस्तेमाल की है । कहीं यह प्रयोग है तो कहीं खालिस इस्तेमाल । ऊपर हम प्रयोग पर काफी बात कर चुके अब बात इस भूत के इस्तेमाल की । इस भूत ने थोड़े ही समय में जो न्याय की दशा ला दी है वह अन्यायियों के लिए चिंता की बात है । भारतीय समाज में जो सत्ता – सवर्ण – धनिकों का नेक्सस है उसके लिए यह बहुत बुरी खबर है कि न्याय की बात हो , अपराधियों को दंड मिले । इस नेक्सस के लिए तो अपराधी वे हैं जो इसके खिलाफ है । तो इस लिहाज से गोबर का भूत अपराधी है । टीवी के लिए भी गोबर का भूत अपराधी है और इस अपराधी को सरकार कि नजर में या कहें कि उस नेक्सस की नज़र में लाने का जो काम टीवी ने किया वह भी गोबर के इस्तेमाल की श्रेणी मे आता है । अब सरकार भी गोबर के भूत का इस्तेमाल ही करेगी अपने नेक्सस को बचाने के लिए । क्योंकि सामाजिक न्याय यदि मिलने लगे तो यह सरकार के लिए सीधी चुनौती होगी ।

डर की सत्ता है । गोबर के भूत को बनाने वाले ने अपने डर को सामने वाले पर उतार दिया । अब सभी पक्षों की नज़र में गोबर नहीं बल्कि उसका भूत है जो इनसे मानसिक रूप से मजबूत है । लेकिन सत्ताएँ और उससे जुड़ी चीजें भूत से नहीं डरती , किसी भी ऐसे व्यक्ति से भी नहीं डरती जो अकेले उनके खिलाफ संघर्ष करता है । इसलिए संघर्ष लगातार एक जगह बना नहीं रह पाता गोबर के भूत की तरह । उसे भागा दिया जाता है । इस तरह से कविता उस संघर्ष की मजबूरी का उदाहरण है जो बहुत क्षमताशील होते हुए भी सत्ता के दमन के आगे ज्यादा देर टिक नहीं पाती । इस कविता के प्रतीकों और उदाहरणों से बिलकुल अलग जाते हुए ऐसे उदाहरण आज के भारत में कई देखने को मिल जाते हैं जहाँ सत्ता का दमन संघर्ष को घुटने टेकने या अपनी धार को खुद कुंद कर देने पर मजबूर कर देता है !

कविता अपनी शुरुआत में विद्रोह का एक वातावरण लेकर आती है जो रोमांच पैदा करता है । कविता में वह विद्रोह को लोगों में भरने के बजाय लोगों से अलग हो जाता है । वह सबका विद्रोह न होकर एक खास का ही विद्रोह रह जाता है । कविता का पहला ही वाक्य कहता है कि गोबर दलित था और उसका उसका विरोध हर तरह की हिंसा के खिलाफ था । लेकिन गौर से देखा जाये तो न तो सारे दलित भूत हुए न ही उन्होने विद्रोह के प्रतीक को ही अपनाया । बल्कि एक कदम आगे बढ़कर उन्होने ही भूत को जामुन पर बांध दिया । यह स्थिति दर्शाती है कि एक संभावनाशील विद्रोह भी अपने ही लोगों द्वारा कैसे अलगाव का शिकार हो सकता है ।


यह कविता सैंडविच थ्योरीपर पूरी तरह आधारित है । जहाँ लोग यह मानकर चलते हैं कि सत्ता-सवर्ण-धनिक के नेक्सस के खिलाफ एक विद्रोही है और इन दोनों के बीच में एक बड़ी अ-राजनीतिक जनता है जिसे सामान्यतया मासूम जनता कह कर संबोधित किया जाता है । गोबर के भूत से भी यह जनता भयभीत है और उस नेक्सस से भी प्रताड़ित । यह कविता उनलोगों को बहुत सुकून देगी जो इस सैंडविच थ्योरी में विश्वास करते हैं ।