नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, September 7, 2017

#43 # साप्ताहिक चयन: "छलिया" / जया यशदीप


जया यशदीप
भीग जाये तन मन प्रेम में विह्वल फिर तो क्या छल और क्या छलिया !
प्रेम जिसमें गणित हारने को विवश हो जाय और दर्शन पालना बन पेंग लगाये, इसमें एक और एक का जोड़ एक ही हो, फिर अक्षर चूकने लगें अपने सभी अर्थों से ...!

इस भाव की कवयित्री हैं आदरणीया जया यशदीप जी ! आज के दौर की युवा कलमकारों में तेजी से उभरता एक नाम ! आपकी कविता पर टीप कर रही हैं वरिष्ठ कवयित्री, ब्लॉगर, ग़ज़लगो आदरणीया निर्मला कपिला जी !भीग जाये तन मन प्रेम में विह्वल फिर तो क्या छल और क्या छलिया ...! प्रेम जिसमें गणित हारने को विवश हो जाय और दर्शन पालना बन पेंग लगाये, इसमें एक और एक का जोड़ एक ही हो, फिर अक्षर चूकने लगें अपने सभी अर्थों से ...!

*टीम नवोत्पल
***
छलिया
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वो छलिया है
लेकिन सात समन्दर पार कर आता है मेरे लिये ।
कहता है- हर रोम-कूप प्रेम सागर है तुम्हारा
पहरों प्रेम में डुबोता और उबारता मुझे
कभी माथे पर हाथ रख पूछता कि ताप तो नहीं ...
वो होठों पर उँगलियाँ फिरा कर नमी जान लेता
अपने गीले हाथों से पलोस* देता उनींदा चेहरा मेरा
कभी चुहल करता और खुद काढ़ने लगता मेरे केश
फिर बातें करता सरगम की, दर्शन की और मेरे सपनों की
वो बातें करता मेरे बढते वज़न की
आँखों के नीचे आ रहे स्याह गढ्ढों की
उन पर नसीहतें भी देता ।
फिर थोड़ा रूक कर कहता - " तुम जैसा कोई है भी तो नहीं ! "
मैं हँस पड़ती
वो हंसी जो मेरे आँखों के नीचे ला देती गुलाबी रंगत
फिर से षोडशी सा साँचा तैयार कर देती मेरी देह के लिये ।
वो विदा लेता तो मुझे प्रेमी और भक्त दोनों एक साथ कर जाता !


वो छलिया है
जानती हूँ वो दूसरे शहर में फिर अपनी किसी नायिका से दोहराता होगा यही संवाद
रंगमंच के कथानक सा
स्वीकारता नहीं लेकिन नकारता भी नहीं प्रश्नों को मेरे
बस झालरदार पलकें झपकाता
फिर मुस्काता
होंठ पर एकादशी के चाँद सा चाप छोड़ जाता ।


यूँ नहीं कि मेरा स्वाभिमान ना डिगा हो
या पौष /फाल्गुन मैनें ना बिताया हो रो कर
या संन्यासियों के फेरे ना डाले हों कि भूल जाऊँ उसे
पर उस जैसी माया है भी कहाँ
रूप में कृष्ण
क्रिडा़ओं में कामदेव
ममता में यशोदा
शब्दों में सरस्वती !

Pic Click: Raghavendra


इक हिचकी पर मेरी दौड़ पड़ता शहर दर शहर लाँघता
कहता कि उसका वश चले तो स्वाती नक्षत्र की बूँदें भर लाये कलश भर वो मेरी हर हिचकी पर !

अब हार गई हूँ उसके प्रेम से
या भक्ति में हूँ मैं क्या जानूँ ...
कल भी वो दौड़ा आया आकाश लाँघता
बस ये बताने कि - जब तुम साठ की होगी
तब भी तुम्हें राग जैजैवन्ती सुनाऊँगा सितार पर
वो ही पीला कुर्ता पहन जब पहली बार तुम्हें देखा था मंच से
तब भी भरी रोशनी और अनगिनत चेहरों के बीच मैं सिर्फ तुम्हें निहारूंगा ...जब तुम साठ की होगी ...तब भी ...
मैं अक्सर सोचती
प्रेम में शब्दों के कितने मायने हैं ?
"हमेश” " कभी नहीं" जैसे शब्दों को सर्वथा निरर्थक पाती हूँ
इसलिए इस छलिये से अभी भी प्रेम है मुझे
वो कभी भी "हमेशा ..हमेशा" नहीं कहता
कहता कि बस तुम देखते रहना महीने ...साल...और मुझे !
और मैं देख रही हूँ साल दर साल उसका " होना" ।
सुरों से मोहने वाला मुझे
छलिया और रंगरेज एक साथ है वो !


पलोस*= गीले हाथों से पोछना /प्यार से हाथ फेरना

(जया यशदीप)

***

बहुत गहरे से युवती से प्रौढ़ा बन गयी औरत के मन के परिंदे की वेदना को ,जज़्बातों को , अहसासों को ऐसे शब्द दिए कि दिल का दर्द तो बयाँ होता है मगर कहीं उसकी कड़वाहट नहीं l रूह प्यासी है मगर आँखों की नमी से प्यास बुझा लेती है। रूहानी प्यार इस उम्र तक भी उसकी आशा को धूमिल नहीं होने देता। शायद यही मीरा का प्यार था। बहुत सुन्दर शब्द और सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा।

एक सिप्पी समन्दर के गर्भ में रह कर कितनी दुश्वारियां सहती है कितने सुनामी जलजले सहती है उसी तरह नारी की रूह में एक रूहानी जज़्बे का मोती होता है जो दुश्वारियों में भी उस मोती को सँभाले रखती है। प्रेमी को छलिया कह कर भी उसकी मर्यादा को ठेस नहीं पहुँचने देती । उसे मनुहार स्नेहिल पलों का पल पल एहसास रहता है । वो उसे छोड़ कर जाने पर भी उसे कृष्ण की उपमा दे डालती है।

देखिये ये पंक्तियाँ-
" वो विदा लेता तो मुझे प्रेमी और भक्त एक साथ कर जाता । "
विरह का विष पी कर भी उसे तलाशती है, क्या क्या नहीं करती उसे पाने के लिए, मगर दुनिया में उस जैसा उसके लिए कोई नहीं।

देखिये पंक्तियाँ-
" पर उस जैसी माया है भी कहाँ रूप में कृष्ण क्रीड़ाओं में कामदेव ममता में यशोद्धा शब्दों में सरस्वती"
कितनी पावन गहरी अभिव्यक्ति है इन पंक्तियों में एक एक भाव में कितनी कितनी कहानियां उसके जीवन की होंगी।
उसे उम्र भर याद करके महसूस करती है उसके शब्द उसका प्रेम। और इस कशमकश में कई बार हताश होती है l
मगर प्रेम को रूह से निकाल नहीं पाती और यही नारी के रूहानी रूप की पराकाष्ठा है। इसे शब्दों में व्यक्त करना बहुत मुश्किल है। इन एहसासों को शब्द देना पाठक के दिल तक उतर जाना एक अच्छा संवेदनशील कवि ही कर सकता है। नारी के पवित्र मन की सुन्दर सहज उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए कवियत्री को बधाई।
निर्मला कपिला 

 




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